कानपुर। आजादी में कानपुर ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। अंग्रेजों ने आस्था पर प्रहार करना चाहा, लेकिन हिंदुओं की एकता के आगे उन्हें मुंह की खानी पड़ी। कानपुर में भगवान गणेश का एक ऐसा मंदिर भी है, जिसका विरोध अंग्रेजी हुकूमत ने किया, लेकिन आस्था की जीत हुई।


अंग्रेजों के खिलाफ बिठूर से 1857 में शुरू हुई गदर पूरे देश में फैल गई। गोरों को देश से खदेड़ने के लिए क्रांतिकारी लड़ रहे थे, तो फिरंगी हुकूमत बचाने के लिए नए-नए हथकंडे आजमा रहे थे। इसी दौरान उन्होंने जाति, मजहब के नाम पर लोगों को बांटना चाहा, लेकिन बालगंगाधर तिलक ने उनके मंसूबों में पानी फेर दिया।


देश में सबसे पहले 1893 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने सार्वजनिक तौर पर गणेशोत्सव की शुरुआत की। शुरुआत मुंबई से हुई। इसके बाद कानपुर में लोगों को जोड़ने के लिए घंटाघर चौराहे पर 1908 में भगवान गणेश की प्रतिमा स्थापित करवाई और महोत्सव मनाने का ऐलान कर दिया।


मंदिर समिति के सदस्य दीपक कश्यप बताते हैं कि जब अंग्रेज सैनिकों को मंदिर निर्माण और गणेश जी की मूर्ति की स्थापना की जानकारी मिली, तो उन्होंने मंदिर निर्माण पर रोक लगा दी थी। अंग्रेज अधिकारियों ने तर्क दिया कि पास में मस्जिद होने के कारण मंदिर नहीं बनवाया जा सकता है। अंग्रेजों के मना करने के बाद रामचंद्र ने कानपुर में मौजूद अंग्रेज शासक से मुलाकात की, लेकिन बात नहीं बनी। अंततः घर के अंदर पहली मंजिल पर भगवान गणेश की चोरी-छिपे स्थापना की गई और पूजा की जाती रही।


मंदिर समिति के सदस्य संदीप पांडेय कहते हैं कि मुंबई के बाद कानपुर में सिद्धि विनायक का दूसरा रूप है। 15 नवंबर 2000 को मंदिर को भव्य रूप दिया गया और 40 फीट की गणेश जी की मूर्ति लगाई गई। पहले यह तीन मंजिल का घर था और अब चार मंजिल का मंदिर बन चुका है, जहां हर मंजिल पर अलग-अलग अवतारों की मूर्तियां स्थापित हैं।


इस मंदिर के द्वार पर मूसक विराजमान हैं, जिनके कानों में भक्त अपनी मनोकामनाएं कहते हैं। शिवालयों में जहां नंदी द्वार पर होते हैं, वहीं इस गणेश मंदिर में मूसक विराजमान हैं।

स्थानीय निवासी अमित कुमार मेहरोत्रा बताते हैं कि आज इस मंदिर को स्थापित हुए 100 साल पूरे हो गए हैं।