धनेंद्र कुमार

भारत में 2016 में भारतीय दिवाला और शोधन अक्षमता कोड (आईबीसी कानून) संसद द्वारा पारित किया गया, जो उद्योग जगत के सबसे महत्वपूर्ण सुधारों में से एक है। इस कानून का मुख्य उद्देश्य कंपनियों और व्यक्तियों के लिए एक कानूनी ढांचा तैयार करना है जो अपने ऋणों का भुगतान नहीं कर सकने की स्थिति में कुशलता से काम कर सके और पुनर्प्राप्तियों को अधिकतम करा सके।

आईबीसी कानून का महत्व

आईबीसी कानून ने यह संभव किया है कि यदि कोई उद्यम वाछिंत सफलता नहीं प्राप्त करता है, तो उसे कानूनी मार्ग से बाहर निकलने का सुगम रास्ता मिल सके। इससे बैंकों को भी कर्ज देने में सहूलियत होती है और लेन-देन की प्रक्रिया ठीक से चलती रह सकती है। जब कोई लोन या बकाया राशि लंबे समय तक अदा नहीं होती, तो कुछ परिस्थितियों में उनका वर्गीकरण एनपीए (नॉन-परफॉर्मिंग एसेट्स) में कर दिया जाता है। इन परिस्थितियों में, जब ऋण लेने वाला देयता को पूरा करने में अक्षम होता है, तो लेंडर लोन एग्रीमेन्ट को टूटा हुआ मानते हैं और एनपीए लेंडर की बैलेंस शीट पर वित्तीय बोझ बढ़ा देते हैं।

आईबीसी में प्रस्तावित सुधार

कॉस-बॉर्डर दिवालियापन

कॉस-बॉर्डर दिवालियापन वह स्थिति है जब एक देनदार के पास कई देशों में ऋणदाता और संपत्तियां होती हैं। ऐसे मामलों को कानूनी रूप से निष्पक्ष और कुशलतापूर्वक संभालना महत्वपूर्ण है ताकि विभिन्न देशों की अदालतों में समन्वय हो सके, विरोधाभासी निर्णयों से बचा जा सके और ऋणदाताओं के हितों की रक्षा की जा सके। दिवाला कानून समिति (आईएलसी) ने यूएनसीआईटीआरएएल मॉडल कानून को अपनाने की सिफारिश की, जो दुनियाभर में अदालतों के बीच सहयोग को बढ़ावा देने पर आधारित है।

सामूहिक दिवालियापन

आज के आधुनिक परिप्रेक्ष्य में सामूहिक व्यापार का जमाना है। जब समूह का कोई एक व्यापार दिवालिया हो जाए तो समूह को एकल आर्थिक इकाई मानने से मदद हो सकती है और ऋणदाता के पैसे तथा मुकदमे आसानी से निपट सकते हैं। परन्तु सामूहिक व्यापार में इसमें कठिनाई आ सकती है क्योंकि अभी आईबीसी में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है।

चुनौतियां और समाधान

वर्तमान चुनौतियां

भारत को इन चुनौतियों को संबोधित करने के लिए एक मजबूत दिवाला कानून की आवश्यकता है। आईबीसी के तहत हाल ही में रिकवरी रेट का ह्रास एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। मार्च 2019 से सितंबर 2023 के बीच रिकवरी रेट 43% से गिरकर 32% हो गई है। इसके अतिरिक्त, औसत समाधान का समय भी 324 से बढ़कर 653 दिन हो गया है, जो आईबीसी के उद्देश्यों के विपरीत है।

देरी के कारण

  • मामलों का प्रवेश: राष्ट्रीय कंपनी विधि न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) के समक्ष मामलों का प्रवेश अक्सर बहुत लंबा समय लेता है।
  • अनावश्यक अपीलें: अनावश्यक अपीलें भी देरी का कारण बनती हैं।
  • उच्च लंबितता: एनसीएलटी में 20,000 से अधिक लंबित मामले हैं।
  • समर्पित पीठ: एनसीएलटी मामलों के लिए एक समर्पित पीठ होने से प्रक्रिया को निर्धारित समय के भीतर पूरा करने में मदद मिल सकती है।

निष्कर्ष

आईबीसी में वर्तमान कमियों को दूर करने के लिए कानून में सुधार आवश्यक है, जिसमें कॉस बॉर्डर और सामूहिक दिवालियापन प्रावधान शामिल हैं। इन सुधारों से न केवल लेन-देन प्रक्रिया में सुधार होगा बल्कि भारत की व्यापार करने की सुगमता भी बढ़ेगी और आर्थिक वृद्धि को प्रोत्साहन मिलेगा।