प्रधानमंत्री मोदी की यूक्रेन की राजधानी कीव की बहुचर्चित यात्रा की ऐतिहासिक प्रतीकात्मकता के बावजूद सोशल मीडिया पर गैर-जरूरी और निरर्थक बहस छिड़ गई है। प्रधानमंत्री मोदी यूक्रेन की यात्रा करने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री बन गए हैं, वह भी तब, जब वह रूस के साथ भीषण युद्ध में उलझा हुआ है। उन्हें पोलैंड की सीमा से करीब 10 घंटे की कठिन यात्रा करनी पड़ी।

उनके इस साहसिक प्रयास की सराहना की जानी चाहिए। इस यात्रा को लेकर यह आरोप कि यह फोटो खिंचवाने के लिए थी, बचकानी लगती है। वाशिंगटन की राजकीय यात्रा के दौरान या हिरोशिमा में जी-7 शिखर सम्मेलन में या पिछले साल आसियान और दक्षिण पूर्व एशिया शिखर सम्मेलनों में जिस तरह से उनका स्वागत किया गया और पिछले साल सितंबर में जी-20 शिखर सम्मेलन की उन्होंने जिस तरह अध्यक्षता की, उससे मोदी की वैश्विक स्वीकार्यता और उनकी कद स्पष्ट होती है।

मोदी के आलोचक मानें या न मानें, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी की स्वीकृति और उनका कद अन्य वैश्विक नेताओं से ज्यादा है। टकराव खूनी संघर्ष को समाप्त करने का कोई विकल्प नहीं है, जिससे दुनिया भर में लाखों लोग प्रभावित होते हैं। क्या इस संदेश को आगे बढ़ाने के लिए मोदी से अधिक उपयुक्त और बेहतर कोई अन्य विश्व नेता है?

कई लोगों ने यात्रा के समय पर सवाल उठाए हैं, जब यूक्रेन ने कुर्स्क में 1,400 वर्ग किलोमीटर रूसी क्षेत्र पर कब्जा करने का दावा किया है और रूस ने कीव में भयंकर ड्रोन हमला किया है और डोनेट्स्क क्षेत्र में बढ़त हासिल की है। क्या दोनों पक्ष जहां तक संभव हो, दूसरे के क्षेत्र पर कब्जा करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं, ताकि बातचीत की मेज पर सौदेबाजी की जा सके?

भयंकर हमलों के बावजूद यह निर्विवाद है कि रूस, यूक्रेन, अमेरिका, यूरोपीय संघ और नाटो तथा ग्लोबल साउथ-सभी इस संघर्ष का शीघ्र अंत चाहते हैं। यदि दोनों युद्धरत पक्ष सीधे ऐसा नहीं कर सकते और संयुक्त राष्ट्र कोई भूमिका निभाने में अक्षम साबित हुआ है, तो ग्लोबल साउथ का नेता बनने की आकांक्षा रखने वाले राष्ट्र के रूप में भारत द्वारा प्रयास करने में क्या बुराई है? भारत को अगला शांति सम्मेलन आयोजित करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए, लेकिन जेलेंस्की की शर्तों पर नहीं और रूस को उसमें उपस्थित होना चाहिए।

अगर मोदी की यात्रा इतनी महत्वहीन थी, जैसा कि मोदी के आलोचक आरोप लगा रहे हैं, तो बाइडन और पुतिन, दोनों को यह जानने में इतनी दिलचस्पी क्यों थी कि जेलेंस्की के साथ उनकी बातचीत में क्या हुआ? हालांकि उम्मीदें बहुत कम थीं, लेकिन यह व्यर्थ की कवायद नहीं थी। यह शांति की संभावनाओं को तलाशने का एक प्रयास था कि सैन्य टकराव खूनी संघर्ष को समाप्त करने का कोई विकल्प नहीं है, जिससे दुनिया भर में लाखों लोग प्रभावित होते हैं।

मोदी ने पुतिन की तुलना में जेलेंस्की को ज्यादा गर्मजोशी से गले लगाया (हालांकि जेलेंस्की चिड़चिड़े से दिख रहे थे) और एक बड़े भाई की तरह उनके कंधे पर हाथ रखकर चले। मोदी के इन नेकनीयत इशारों से जेलेंस्की का गुस्सा शांत हो जाना चाहिए था। जुलाई में जब मोदी ने पुतिन को गले लगाया था, तो जेलेंस्की ने उसे शांति प्रयासों के लिए विनाशकारी बताया था। लेकिन जिस तरह से जेलेंस्की ने मोदी को लेकर ट्रेन के यूक्रेनी क्षेत्र से रवाना होने से पहले ही प्रेस कॉन्फ्रेंस में भारत की आलोचना की, वह अत्यंत अशिष्ट और अकूटनीतिक था।

करण थापर और पूर्व विदेश सचिव और रूस के राजदूत कंवल सिब्बल जैसे कुछ टिप्पणीकारों ने उनकी टिप्पणियों को असभ्य और अपरिपक्व कहा है। उन्हें लगा कि जेलेंस्की ने भारत को नीचा दिखाया और ऐसी शर्तें तय करने की कोशिश की, जो अमेरिकियों ने भी कभी नहीं कीं। विदेश मंत्री जयशंकर ने कीव में अपनी प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि अगले शांति सम्मेलन का प्रारूप यूक्रेन पर निर्भर करता है, जबकि भारत का मानना है कि किसी भी व्यावहारिक प्रगति के लिए रूस की उपस्थिति आवश्यक है।

मोदी ने जेलेंस्की से कहा, “मैं आपको आश्वस्त करना चाहता हूं कि भारत शांति की दिशा में किसी भी प्रयास में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए तैयार है। अगर मैं व्यक्तिगत रूप से इसमें कोई भूमिका निभा सकता हूं, तो मैं ऐसा करूंगा।” उन्होंने पोलैंड से जेलेंस्की को संदेश भेजा था, “आज का भारत सबसे जुड़ना चाहता है और सबके विकास की बात करता है। भारत सबके साथ है और सबके हितों के बारे में सोचता है… भारत इस क्षेत्र में स्थायी शांति का हिमायती है। हमारा रुख बहुत स्पष्ट है, यह युद्ध का युग नहीं है।” जाहिर है, जब मोदी ने इतना स्पष्ट कहा, तो छिपा हुआ एजेंडा कहां है?

जैसा कि प्रोफेसर मट्टू ने संडे टाइम्स (25 अगस्त) में अपने लेख में सुझाया है कि मोदी की यूक्रेन यात्रा भारत के समग्र रणनीतिक विकल्पों के सूक्ष्म पुनर्मूल्यांकन का संकेत दे सकती है। इसे पूरी तरह बकवास कहकर खारिज करना भोलापन है।