ऋषि सुनक की कंजर्वेटिव पार्टी ब्रिटेन में बुरी तरह चुनाव हार गई। यह उसका सबसे खराब प्रदर्शन रहा है, वहीं किएर स्टार्मर के नेतृत्व में लेबर पार्टी के लिए यह टोनी ब्लेयर की रिकॉर्ड जीत के बाद दूसरी सबसे बड़ी जीत है। भारतीय मूल के और नारायण मूर्ति की बेटी अक्षता मूर्ति के पति होने के कारण ऋषि सुनक के प्रति भारतीयों का विशेष लगाव रहा। जब वे ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बने तब भारतीयों ने विशेष रूप से जश्न मनाया। कुछ लोगों ने इसे जिस भारत पर ब्रिटेन का कब्जा रहा उसी के शीर्ष पद पर भारतवंशी के आसीन होने की तरह देखा। यद्यपि सुनक के पुरखे भर भारतीय रहे हैं, उनका स्वयं का और उनके माता-पिता का भी जन्म भारत में नहीं हुआ। लेकिन, अक्षता के कारण उन्हें भारत के दामाद की तरह भी बुलाया गया।
जाहिर है कि ऋषि सुनक की हार से भारत में भी बहुतों का दिल टूटा है और उन्हें यह भी लगता है कि अब भारत और ब्रिटेन के आपसी रिश्ते पहले की तरह मजबूत नहीं रहेंगे। क्या यह आशंका सच है? ऋषि सुनक क्या वास्तव में भारत के साथ संबंध निभाने में सबसे आगे थे या क्या उनकी हार से भारत-ब्रिटेन संबंधों पर पहाड़ टूट पड़ेगा? कुछ उत्साही मीडियाकर्मी तो सुनक की हार के पीछे भी उनका भारतप्रेम, महंगी जीवन शैली, अक्षता का भारतीय नागरिकता न छोड़ना वगैरह कारण बता रहे हैं। क्या यह भी सच है?
उत्तर है – नहीं! आइये, जानते हैं क्यों। ऋषि सुनक की हार का सबसे बड़ा कारण है- 14 वर्षों से जारी कंजर्वेटिव पार्टी के राज के कारण एंटी इनकम्बेंसी। दूसरा कारण है एक के बाद एक विफल हुए पार्टी नेतृत्वकर्ताओं के कारण पांच बार प्रधानमंत्री के चेहरे में बदलाव से उपजा अविश्वास। इसे बार-बार कमांडर बदलने का दुष्प्रभाव भी कह सकते हैं। कुछ घोटालों के सामने आने और सुनक के पूर्व के प्रधानमंत्रियों की इंग्लैंड की अर्थव्यवस्था संभालने में विफलता ने लेबर पार्टी की जीत का रास्ता आसान कर दिया था।
यह हार 2019 के चुनाव में भी हो सकती थी, लेकिन तब ब्रेग्जिट संधि से बाहर आने के माहौल ने यूके में दृश्य बदल दिया था। इस बार एंटी इनक्मबेंसी का प्रभाव रोकने के लिए ऋषि सुनक ने चुनाव जल्दी भी कराए लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा। यह समझ लें कि ब्रिटेन में सुनक विरोधी वोट नहीं, बल्कि कंजर्वेटिव पार्टी के खिलाफ वोट पड़ा है। लगभग बीस महीने पहले जब सुनक को इस पद पर आसीन किया गया था तब ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था सबसे मुश्किल दौरों में से एक में थी।
दरअसल कोरोना त्रासदी से निपटने के लिए अपनाई गईं आर्थिक नीतियों और कोविड से निपटने के तरीकों ने 2019 में चुनाव जीतने वाले प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को बेहद अलोकप्रिय कर दिया। रूस-यूक्रेन युद्ध ने यूके की मुसीबतें बढ़ा दीं और अंततः जॉनसन को इस्तीफा देना पड़ा। बढ़ती महंगाई, ब्याज दरों और बेरोजगारी के बीच सुश्री लिज ट्रस प्रधानमंत्री पद की कुर्सी पर बैठीं, लेकिन अपनी आर्थिक नीतियों का वांछित असर न देखकर मात्र 40 दिनों बाद ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया।
ऐसे में बेहद मुश्किल परिस्थितियों में अक्टूबर 2022 में प्रधानमंत्री पद संभालने वाले सुनक ने उन्हें मिली आर्थिक स्थिति संभालने की सबसे बड़ी चुनौती को बखूबी पूरा किया और जैसा उन्होंने प्रधानमंत्री बतौर अंतिम भाषण में कहा मात्र 20 महीनों के अंतराल में ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था को लेकर पहले लक्ष्य पूरे किए गए हैं। मुद्रास्फीति की दर बैंक ऑफ इंग्लैंड के मापदंड दो प्रतिशत से कम है, ऋण पर ब्याज दरें पुनः कम हो चुकी हैं और अर्थव्यवस्था पुनः विकास की ओर लौट चुकी है।
नवागत प्रधानमंत्री किएर स्टार्मर ने भी अपने प्रथम भाषण में ऋषि सुनक के योगदान को सराहा। स्टार्मर ने कहा, “ब्रिटिश एशियन पीएम के तौर पर उनकी असाधारण उपलब्धियों को हम भूल नहीं सकते, उसके प्रति हम आदर व्यक्त करते हैं।” सुनक की जीवन शैली या भारत प्रेम या परिवार अथवा दौलत उनके हारने के कारणों में कतई शामिल नहीं। भारतवंशी प्रधानमंत्री के रूप में हम संतुष्ट हो सकते हैं कि उनकी विदाई सम्मानजनक रही और अभी उनकी कम उम्र को देखते हुए उनके सामने एक लंबा भविष्य पड़ा है।
ऋषि सुनक स्वयं नॉर्थ इंग्लैंड से अपनी सीट अच्छे बहुमत से जीत गए, जबकि कंजर्वेटिव पार्टी की हार का प्रमुख कारण मानी जा रही पूर्व प्रधानमंत्री लिज ट्रस और चुनाव समर से पहले ही हार मान लेने वाले ग्यारह मंत्री भी चुनाव हार गए। लेबर पार्टी में एक समय में भारत विरोधी भावना वाले तत्व बहुत थे। लेकिन तारीफ करनी होगी नवागत प्रधानमंत्री सर किएर स्टार्मर की जिन्होंने लगातार दृढ़ता से भारत विरोधी भावना का विरोध कर लेबर पार्टी का रूख ही बदल दिया।
इनमें सबसे महत्वपूर्ण रहे जर्मी कोर्बिन जिनके नेतृत्व में 2019 में लेबर पार्टी ने कश्मीर में धारा 370 हटाने के संदर्भ में प्रस्ताव पास किया कि कश्मीर में मानवाधिकार संकट में हैं तथा वहां के नागरिकों को स्वयं का निर्णय लेने का अधिकार मिलना चाहिए। भारत ने स्वाभाविक तौर पर इसका विरोध किया लेकिन उससे महत्वपूर्ण यह है कि किएर स्टार्मर ने इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए स्पष्ट कहा कि कश्मीर अंदरूनी मसला है और ब्रिटेन को इसमें दखल नहीं देना चाहिए। बाद में स्टार्मर ने जर्मी कोर्बिन को पार्टी में लगभग साइडलाइन कर दिया और अंततः जर्मी ने यह चुनाव निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में लड़ा।
इसी तरह लेबर पार्टी की शैडो मिनिस्टर रही प्रीत कौर गिल को खालिस्तान समर्थक कदमों के कारण उन्होंने पदावनत कर दिया था। चरमपंथियों का समर्थन करने के कारण सिख लेबर काउंसलर परविंदर कौर पर भी वे कठोर कदम उठा चुके हैं। लेबर पार्टी खालिस्तान के मुद्दे पर अपना रूख स्पष्ट कर चुकी है कि वह भारत विरोधी या अलगाववादी किसी भी भावना का समर्थन नहीं करती। यहां उल्लेखनीय है कि ब्रिटेन में खालिस्तान समर्थकों पर कार्रवाई के मामले में सुनक की सरकार की कोई विशेष जमीनी उपलब्धियां नहीं रहीं। किसी वीवीआईपी के आने या जाने के दौरान बयान भर जारी किया जाता था, लेकिन असलियत में भारतीय दूतावास से तिरंगा ध्वज उतारने वालों तक पर आज तक जांच ही चल रही है, कार्रवाई नहीं हो पाई। अतः इस मोर्चे पर भी सुनक के जाने और स्टार्मर के आने से भारत का कोई नुकसान नजर नहीं आता।
विगत दिनों मंदिर दर्शन करने गए किएर स्टार्मर ने भारतीय समुदाय को संबोधन करते हुए कहा था कि “हिन्दू फोबिया का ब्रिटेन में कोई स्थान नहीं है।” ब्रिटेन की 2.5 प्रतिशत आबादी भारतवंशियों की है जो अधिकांश समय लेबर समर्थक रहे हैं। ऋषि सुनक की तरह ही स्टार्मर भी होली-दीवाली के उत्सवों में शामिल देखे गए हैं। भारत के अच्छे संबंध बनाना कंजर्वेटिव और लेबर दोनों ही पार्टियों के घोषणा पत्र में था। लेबर पार्टी ने भारत के साथ मुक्त व्यापार समझौते को प्राथमिकता देने के साथ तकनीक और रक्षा के मामले में भी आपसी सहयोग बढ़ाने को घोषणा पत्र में शामिल किया है।
शैडो मिनिस्ट्री एक अच्छी और अनुकरणीय लोकतांत्रिक परंपरा है जो भारत में लागू नहीं है लेकिन ब्रिटेन में लागू है। इससे विपक्षी दलों को महत्वपूर्ण मसलों पर अपना रूख स्पष्ट करने का अवसर मिलता है। लेबर पार्टी के शैडो विदेश सचिव डेविड लैमी भारत के साथ संबंध और मधुर करने की प्रतिबद्धता जताते हुए इसे प्राथमिकता भी बता चुके हैं। भारत को अनेक मोर्चों पर महाशक्ति कहने वाले डेविड लैमी ही विदेश मंत्री बनें, इसकी सम्भावना भी थी और ब्रिटेन में बसे भारतीयों की इच्छा भी। खुशी की बात यह है कि किएर स्टार्मर सरकार में विदेश मंत्री का पद डेविड लैमी को ही दिया गया है जो भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर को अपना मित्र बताते हैं।
इतना ही नहीं लैमी तत्कालीन प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन द्वारा भारत के साथ फ्री ट्रेड एग्रीमेंट साइन करने की डेडलाइन चूकने को लेकर तंज भी कस चुके हैं और इस समझौते को शीघ्रतिशीघ्र साइन करने के लिए जुलाई अंत में भारत आने की घोषणा भी कर चुके हैं। भारतीयों के लिए वर्क वीजा, परमिट आदि ऐसे मुद्दे हैं जिनमें ऋषि सुनक भारतीयों की कोई मदद नहीं कर पाए। आखिर उन्हें अपने देश की जरूरतों और परिस्थितियों के हिसाब से निर्णय लेने होते हैं। ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था के दबावों को देखते हुए इन विषयों पर स्टार्मर सरकार से भी बहुत बड़ी उम्मीदें नहीं लगाई जा सकतीं। न भूलें कि ब्रिटेन में अभी भी बेरोजगारी उनके मापदंडों के हिसाब से अधिक है।
पिछली संसद के मुकाबले इस बार लेबर पार्टी से भारतीय मूल के सांसद दोगुनी संख्या में जीत कर आए हैं। स्टार्मर के करीबी सहयोगियों में भी भारतीय मूल के लोग हैं। कई मामलों में ऋषि सुनक और उनके पूर्ववर्ती कंजर्वेटिव पार्टी के बड़े नेताओं की छवि सिर्फ बयान देकर काम न करने की रही। स्टार्मर से उम्मीद है कि वे द्विपक्षीय संबंधों की मजबूती के लिए मुद्दों का ठोस जमीनी निराकरण करेंगे। ब्रेग्जिट के बाद ब्रिटेन यूरोपीय संधि के देशों से बाहर मजबूत व्यापारिक संबंध चाहता है। दोनों देशों के बीच मजबूत संबंधों का इतिहास रहा है। व्यापार के अलावा सुरक्षा, आतंकवाद, साइबर सिक्योरिटी, जलवायु परिवर्तन, अन्य देशों के रणनीतिक संबंधों आदि में दोनों देशों को एक दूसरे के सहयोग की जरूरत रही है।
ऐसे में भारतीय मूल के पहले ब्रिटिश प्रधानमंत्री सुनक की हार का भारतीयों के लिए कोई ऋणात्मक असर भले ही नजर आ रहा हो, वास्तव में किएर स्टार्मर और डेविड लैमी की जोड़ी न केवल नुकसान की भरपाई करने बल्कि दोनों देशों के संबंधों को और मजबूती प्रदान करने में समर्थ नजर आती है।