बांग्लादेश में शेख हसीना और उनकी सरकार के पतन के बाद दुनिया के एकमात्र धर्मनिरपेक्ष इस्लामिक देश का पतन हो गया है। शेख हसीना के पिता, मुजीबुर रहमान, बांग्लादेश के निर्माता थे। उन्होंने सिद्ध किया था कि नागरिकों के लिए धर्म से अधिक महत्वपूर्ण भाषा होती है। जब पाकिस्तान के अधिनायकवादी शासकों ने बांग्लादेश पर उर्दू को थोपने की कोशिश की, तो मुजीबुर रहमान ने इसे नामंजूर कर दिया और कहा कि बांग्ला भाषा ही हमारी मातृभाषा है। इसके बावजूद पाकिस्तान के शासकों ने उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया, जिसके परिणामस्वरूप बांग्लादेश के नागरिकों ने पाकिस्तान से अलग होने का निर्णय लिया।
शेख हसीना ने अपने शासनकाल में बांग्लादेश को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने के लिए कई संवैधानिक सुधार किए और अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से हिंदुओं, को सुरक्षा प्रदान की। उनके शासनकाल में बांग्लादेश ने आर्थिक रूप से प्रगति की और भारत के साथ भी संबंध बेहतर हुए। हालांकि, धीरे-धीरे शेख हसीना को सत्ता का नशा चढ़ने लगा और उन्होंने अपने विरोधियों पर अत्याचार करना शुरू कर दिया। उन्होंने खालिदा जिया को जेल में डाल दिया और उनकी पार्टी को चुनाव लड़ने में बाधाएं उत्पन्न कीं।
उन्होंने जमाते इस्लामी को आतंकवादी संगठन घोषित कर दिया, जबकि जमात का बांग्लादेश में प्रभाव था। उन्होंने लोकतांत्रिक अधिकारों पर हमला किया, जिससे उनकी लोकप्रियता में गिरावट आई और पूरे बांग्लादेश में उनके खिलाफ आक्रोश फैल गया। उन्होंने एक और विवादास्पद निर्णय लिया, जिसमें उन्होंने 1971 के पाकिस्तान विरोधी आंदोलन में शामिल लोगों को सरकारी नौकरियों में 30 प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला किया, जिससे उनके खिलाफ विरोध बढ़ गया।
विरोध इतना बढ़ गया कि शेख हसीना को रात के अंधेरे में बांग्लादेश छोड़कर भागना पड़ा। उन्हें फौज की मदद से बांग्लादेश से सुरक्षित निकाला गया, ताकि उनकी हत्या न हो जाए। उन्होंने भारत में शरण ली, जहां उन्हें अस्थायी शरण दी गई। उनके पतन से भारत के सामने गंभीर समस्याएं खड़ी हो गई हैं, क्योंकि बांग्लादेश चीन और पाकिस्तान की नीतियों का शिकार हो सकता है।
शेख हसीना के पुत्र ने भी घोषणा की है कि उनकी राजनीति समाप्त हो गई है और वे शायद ही बांग्लादेश लौटेंगी। शेख हसीना का पतन इस बात का प्रतीक है कि धर्मनिरपेक्षता तब तक मायने नहीं रखती जब तक वह लोकतांत्रिक न हो। शेख हसीना की धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता इतनी थी कि उन्होंने रवीन्द्रनाथ टैगोर के गीत को बांग्लादेश का राष्ट्रगान बनाया, जैसे भारत ने किया था। लेकिन सत्ता के घमंड ने उन्हें इस शर्मनाक स्थिति में पहुंचा दिया कि उन्हें अपनी मातृभूमि को छोड़ना पड़ा और अपने पिता की धरोहर को खोना पड़ा।