लोकसभा के जारी सत्र में मंगलवार को आम बजट पर अपनी राय रखते हुए पूर्व केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने विपक्ष के नेता राहुल गांधी पर जाति को लेकर जो आपत्तिजनक बयान दिया, उसे एक्स पर शेयर कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक बार फिर से साबित कर दिया कि भारतीय जनता पार्टी द्वारा चलाए जा रहे सामाजिक विभाजनों के सारे अभियानों का वे न केवल नेतृत्व करेंगे बल्कि ऐसी सभी मुहिमों को वे शह भी देंगे। फिर इसके लिए यदि उन्हें संसदीय मर्यादाओं को भंग करना पड़े या लोकतांत्रिक मूल्यों को ध्वस्त करना पड़े तो भी उनकी बला से। साफ है कि सामाजिक विभाजन उनका प्रमुख हथियार बना रहेगा। यह किसी भी देश और वहां की सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था के लिए खतरनाक है।

अनुराग ठाकुर का बयान और मोदी की प्रतिक्रिया

अनुराग ठाकुर ने अपने भाषण में राहुल गांधी पर तंज कसा था कि “जिन्हें अपनी जाति का पता नहीं वे जातिगत जनगणना की मांग कर रहे हैं।” मोदी द्वारा, जो सदन से अनुपस्थित थे, उनके भाषण को अपने हैंडल से इस टिप्पणी को फॉरवर्ड करना यही सब कुछ बयां कर देता है। उन्होंने लोगों से यह कहकर इस भाषण को सुनने की अपील की कि “यह तथ्यों व व्यंग्य के मिश्रण वाला एक अच्छा भाषण था।” यह वाकई बहुत अचरज भरी बात है क्योंकि सदन के नेता होने के नाते वे संसद में सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाए रखने के लिए तो उत्तरदायी हैं ही, देश का नेतृत्व करने के नाते उन पर यह महती जिम्मेदारी भी है कि पूरे देश में भी सामाजिक शांति बनी रहे। दोनों ही रूपों में वे इस मामले में नाकाम रहे हैं।

धार्मिक और सामाजिक टकरावों को उकसाना

राष्ट्रप्रमुखों का काम धार्मिक व सामाजिक टकरावों को शांत कराना होता है, न कि उन्हें उकसाना या भड़काना, लेकिन देखा यह गया है कि पिछले एक दशक से वे समाज को सम्प्रदाय के आधार पर हो या जाति के आधार पर, तोड़ने का ही काम करते आए हैं। पहले मुख्यमंत्री के रूप में गुजरात से लेकर देश भर में उन्होंने विभाजन का यही फार्मूला अपनाकर चुनावी जीतें हासिल की हैं। 2014 में जब मोदी की पीएम पद के लिए उम्मीदवारी तय की गई थी तब उन्होंने विकास की बातें कीं, कांग्रेस सरकार की कथित असफलताओं पर चर्चा की। उनके अनुसार देश की सारी समस्याओं की जड़ कांग्रेस का कुशासन व कुप्रबंधन है। मोदी के पास तब सभी समस्याओं के चुटकी बजाते समाधान थे, फिर वह चाहे भ्रष्टाचार हो या फिर महंगाई, पाकिस्तान की घुसपैठ हो या चीन का वर्चस्व अथवा कोई भी समस्या।

सत्ता प्राप्ति और असफलताएँ

लेकिन सत्ता पाते ही मोदी पर आरोप लगने लगे कि उन्होंने अपने मित्रों की जेबें भरनी शुरू कीं तो देश का हिसाब गड़बड़ाने लगा। नोटबंदी व जीएसटी जैसे सनकपूर्ण निर्णयों ने देश को बदहाल कर दिया। 2019 का चुनाव वे पुलवामा व बालाकोट के चलते जीत गए लेकिन कोरोना के कुप्रबंधन ने उनकी कलई खोल दी। जनता के समक्ष यह साफ हो गया कि मोदी व उनकी सरकार के पास किसी भी समस्या का कोई समाधान नहीं है। महंगाई लगातार बढ़ती गई, भ्रष्टाचार पहले से और कहीं ज्यादा हो गया। बेरोजगारी पिछली आधी सदी में सर्वाधिक हो गयी। कामकाज में सभी तरह की पारदर्शिता खत्म हो गयी और नागरिक कमजोर होते चले गए। सरकार से सवाल पूछने वाले लोगों को जेलों में डाला जाने लगा।

ध्रुवीकरण और विभाजनकारी नीति

‘ऑपरेशन लोटस’ के जरिये विपक्षी लोगों को डरा-धमकाकर या खरीदकर भाजपा लगातार मजबूत होती गयी। इसीलिए उसे भरोसा हो चला था कि 2024 के लोकसभा चुनाव में उसे उसके दिये नारे के मुताबिक 370 और 400 सीटें मिल जाएंगी। मामला बिगड़ गया। 240 पर अटक गयी भाजपा की सरकार तो बन गयी लेकिन असमान विचारधारा वाले दो दलों के सहयोग से – तेलुगु देशम पार्टी और जनता दल (यूनाइटेड)। उम्मीद थी कि तीसरी पारी में भाजपा अपना ध्रुवीकरण का एजेंडा छोड़कर प्रशासन एवं विकास के मोर्चे पर गंभीरतापूर्वक कार्य करेगी। सहयोग करने वाले प्रमुख दल भी उन्हें सीधी राह पर चलने के लिए मजबूर करेंगे।

सहयोगी दलों का रुख

जेडीयू प्रमुख नीतीश कुमार तो सामाजिक न्याय की बात जोरों से उठाते रहे हैं, वे जातिगत जनगणना की मांग करने वाले प्रमुख लोगों में रहे हैं। ऐसे ही, टीडीपी सुप्रीमो व आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने अपने चुनावी घोषणापत्र में मुस्लिमों के लिए अनेक तरह की सुविधाओं एवं सहायता का आश्वासन दिया है जिसे क्रियान्वित करने के लिए वे आमादा हैं। इन दोनों दलों के पास क्रमशः 16 एवं 12 सदस्यों की ताकत है जिसके बल पर मोदी सरकार टिकी हुई है। इन दोनों दलों की विचारधारा भाजपा से मिलती नहीं लेकिन राजनैतिक व वित्तीय जरूरतों के कारण वे साथ हैं। वे किसी माकूल वक्त का इंतजार कर रहे हैं, यह तो कहा नहीं जा सकता लेकिन मोदी व उनके प्रमुख रणनीतिकार केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह जरूर चाहेंगे कि भाजपा किसी प्रकार से 270 का बहुमत का आंकड़ा अपने दम पर जुटा ले। वैसे वह सपना पूरा होता नहीं दिखता।

भाजपा की विभाजनकारी नीति

यदि ऐसे में भाजपा को अब भी भरोसा अपनी उसी विभाजनकारी नीति व कार्य पद्धति पर है, तो इसका मतलब यह है कि उसे मालूम हो गया है कि टीडीपी और जेडीयू कहीं आड़े नहीं आ रहे हैं।