सुधीर विद्यार्थी द्वारा लिखित यह लेख भारतीय कृषि परिदृश्य में हो रहे बदलावों और चुनौतियों को उजागर करता है। लेख में इस बात पर चिंता व्यक्त की गई है कि किस प्रकार से कृषि भूमि का क्षेत्रफल दिन-प्रतिदिन घटता जा रहा है और इसके परिणामस्वरूप खाद्यान्न की उपलब्धता के संकट की संभावना बढ़ रही है। लेखक इस बात पर भी प्रकाश डालते हैं कि खेती, जो कभी जीविका और जीवन का साधन थी, अब एक घाटे का सौदा बन गई है।
लेख में उल्लेख किया गया है कि सरकार की नीतियों ने खेती को घाटे का धंधा बना दिया है। फसलों के बीज, रासायनिक उर्वरकों, और कृषि यंत्रों की कीमतों में बढ़ोतरी, और पैदावार की लागत को हासिल करना किसानों के लिए मुश्किल हो गया है। न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) भी किसानों को नहीं मिल रहा है, जिससे उनके जीवन-यापन की समस्याएँ और भी बढ़ गई हैं।
लेखक यह भी बताते हैं कि रोजगार की कमी के कारण गांवों से पलायन बढ़ा है, जिससे खेती का महत्व कम होता गया है। खेतों का बंटवारा और छोटे किसानों के जमीन बेचने की विवशता ने उन्हें मजदूर बनने के लिए मजबूर कर दिया है।
लेख में यह भी बताया गया है कि पहले गांव आत्मनिर्भर हुआ करते थे, लेकिन अब मशीनों के बढ़ते प्रयोग ने गांवों की परंपरागत जीवनशैली को बदल दिया है। लेखक सरकार और राजनीतिक दलों की उदासीनता पर भी सवाल उठाते हैं, जो किसानों की समस्याओं के समाधान के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठा रहे हैं।
अंत में, लेखक ने कृषि भूमि के घटते क्षेत्रफल और इसे संरक्षित रखने की आवश्यकता पर बल दिया है, लेकिन वे यह भी मानते हैं कि वर्तमान समय में किसानों और उनके नेताओं के पास इस मुद्दे पर कोई स्पष्ट दृष्टिकोण नहीं है। किसान अब अपनी जमीन को धन के बदले बेचने में संकोच नहीं करते, और सरकार भी उनकी जमीन को उचित मुआवजा दिए बिना अधिग्रहित कर रही है।
लेख एक गंभीर चेतावनी है कि यदि कृषि भूमि के घटते क्षेत्रफल पर ध्यान नहीं दिया गया, तो भविष्य में खाद्यान्न की उपलब्धता एक विकराल समस्या बन सकती है।