पौधे लगाने की रस्म अदायगी काफी नहीं, रखरखाव का दायित्व निभाना भी जरूरी

हर वर्ष बड़े स्तर पर पौधे लगाए जाते हैं, पर उन पौधों को वनाग्नि से बचाने पर ध्यान नहीं दिया जाता। इससे समय और पैसे, दोनों की बर्बादी होती है।

सुरेश भाई

जून की भीषण गर्मी के बाद बारिश आने पर वृक्ष प्रेमी गत वर्षों की भांति पौधे रोपने लगे। लेकिन इस बार भी उनमें यह दिलचस्पी नहीं रही कि उनका रोपा हुआ पौधा आने वाले ग्रीष्मकाल से पहले ही वनाग्नि से बच पाएगा या नहीं? यह सावधानी इसलिए कि इस बार पर्वतीय इलाकों के वनों में लगी आग से लाखों पेड़ जल गए हैं। इसके अलावा, वन्य जीव, जड़ी बूटियां, घास, छोटे-छोटे पौधे, पक्षी आदि के विनाश का तो कोई आंकड़ा ही नहीं है।

आग से प्रभावित वनों की जैव-विविधता को बचाने के लिए लोगों ने कई पत्र अपनी राज्य सरकारों को सौंपे हैं, लेकिन बारिश आते ही सारे प्रयास ठंडे बस्ते में चले गए। अतः वन और पर्यावरण के प्रति इस घोर लापरवाही के बाद पेड़ उतने ही लगाने चाहिए, जितना कि इंसान स्वयं देखभाल करके बचा सकता है। जंगल के बीच में पेड़ लगाकर भगवान भरोसे छोड़ना समय और पैसा, दोनों का नुकसान है। और यह हर वर्ष नर्सरी में उगाए गए पौधों के प्रति भी अन्याय है, लेकिन जो लोग अपनी जिम्मेदारी और देखरेख में पौधरोपण कर रहे हैं, उनके द्वारा रोपे गए पौधे आग और सूखे, दोनों से बच जाते हैं।

आंकड़ों के आधार पर यह भी कहा जा रहा है कि लगभग 73,000 प्रजातियों के 30.40 खरब पेड़ दुनिया में मौजूद हैं। लेकिन दूसरी तरफ पता चलता है कि प्रतिवर्ष 15 अरब पेड़ विकास के नाम पर काटे जाते हैं और यह भी बताया जाता है कि इतने ही पौधों का रोपण भी किया जाता है। इसके आधार पर पता चलता है कि प्रति व्यक्ति 400 से अधिक पेड़ धरती पर हैं। यदि यह सच होता, तो वे भीषण तापमान को रोकने में मददगार हो सकते थे। दूसरी ओर, भारत के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल में से 24.62 प्रतिशत क्षेत्र में ही वन हैं, जबकि स्वस्थ पर्यावरण मानक के अनुसार, 33.3 प्रतिशत क्षेत्र में पेड़-पौधे होने चाहिए थे। धरती पर कार्बन को नियंत्रित करने में पेड़ पौधों के अलावा घास की भी अहम भूमिका है।

भारत के भूगोल में विविधता के कारण प्राकृतिक वन क्षेत्रों में बहुत अंतर दिखाई देता है। भारत वन स्थिति रिपोर्ट-2021 के अनुसार, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु के वन क्षेत्र में बेहतर सुधार हुआ है और इसके आधार पर अनुमान लगाया जाता है कि यहां प्रति व्यक्ति 28 पेड़ हैं। अरुणाचल प्रदेश में 80 प्रतिशत वन क्षेत्र है, उत्तराखंड में 71 प्रतिशत और राजस्थान में 10 प्रतिशत से भी कम वन क्षेत्र है। इसलिए भारत की वन नीति के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए एक-तिहाई क्षेत्र को वनों के अंतर्गत लाना पड़ेगा।

एक व्यक्ति को जीवन काल में 7-8 पेड़ों से प्रतिवर्ष 740 किग्रा ऑक्सीजन मिलती है। हर व्यक्ति एक वर्ष में सिर्फ पांच पेड़ लगाए, उनमें से 75 प्रतिशत भी बचा सके, तो धरती पर ऑक्सीजन की कमी नहीं होगी। ध्यान रहे, पौधा तभी पनपता है, जब उसे लगाते समय गड्ढे में कोई कीट न हो। यदि हो, तो दवाई के छिड़काव के साथ खाद और मिट्टी मिलाकर पौधे लगाने चाहिए। धूप से बचाव के लिए समय-समय पर सिंचाई जरूरी है। रोपण के समय गड्ढे के चारों ओर 50-100 सेंटीमीटर व्यास के घेरे में खरपतवार हटाए बिना पौधे की वृद्धि रुक सकती है। 18-24 महीने तक निराई और खाद का प्रयोग आवश्यक है। पेड़ आमतौर पर गीली जमीन पसंद करते हैं। यदि इसका ध्यान नहीं होगा, तो रोपे गए पौधे जल्दी सूख जाएंगे। अनुमान है कि 2050 तक 25 खरब पेड़ ही बचे रहेंगे। फिर तो वैश्विक तापमान वृद्धि को कोई नहीं रोक पाएगा।

इसलिए जरूरी है कि राज्य सरकारें अपने नागरिकों के साथ हर स्तर पर पर्यावरणीय मानकों को बनाए रखने के लिए उचित देखभाल के अनुसार ही पौधरोपण करवाएं। राज्यों को बिना सोचे-समझे जंगल को रातों-रात काटने की प्रवृत्ति पर रोक लगानी पड़ेगी। उदाहरण है कि उत्तर प्रदेश में जहां हर वर्ष करोड़ों पेड़ों का रोपण किया जाता है, वहीं दूसरी तरफ लगभग 50 वर्षों से पाले हुए जंगल को काटने पर विचार हो रहा है। उत्तराखंड में हर रोज जंगल बचाने के लिए लोग एकत्रित होते हैं, फिर भी यहां आए दिन हरे पेड़ कटने की शिकायतें मिलती हैं।

यही स्थिति जम्मू-कश्मीर, लद्दाख, हिमाचल, असम, मेघालय, मणिपुर, नगालैंड, छत्तीसगढ़, झारखंड आदि स्थानों की है। जहां विकास के नाम पर हर रोज लाखों पेड़ों की बलि दी जा रही है। यदि हम रोज पौधरोपण करें और हमारे सामने ही 50-60 साल पुराना जंगल काट दिया जाए, तो समझना चाहिए कि हम आज जो पेड़ लगा रहे हैं, पहले तो उसे आग से बचाना मुश्किल होगा और यदि बच गया, तो लगभग 50 वर्ष तक उसे जंगल के रूप में खड़ा होने के लिए इंतजार भी करना होगा।