गंभीर सवाल यही उठता है कि यह नया शिक्षक कैसा हो? वह इस नई भूमिका का निर्वाह कैसे करे? शिक्षा की प्राथमिकताएं क्या हो और वह कौन-सा परिवेश है जिसमें शिक्षा बदल रही है? शिक्षा के बदलते परिवेश में नए शिक्षक की नई भूमिकाएं कौन सी है? 21वीं सदी में शिक्षक, शिक्षा और शिक्षण संस्थाएं सब के सब आमूल चूल बदलावों की तरफ बढ़ रहे है। प्राथमिकताओं का प्रण करना इतना सरल नहीं है।
के क्षेत्र में उपलब्धियों की एक ही कसौटी है वह है एक शिक्षक की नवाचारी दृष्टि। शिक्षा की चाहे कोई भी प्रणाली हो, विशेषकर स्कूली शिक्षा व्यवस्था तो एक व्यवहारिक और व्यावसायिक दृष्टि से सम्पन्न, सक्षम, प्रज्ञ और प्रेरित तथा नवोत्साह से भरे शिक्षक व उसके सक्रिय सहयोग एवं उसकी सुनियोजित-समुचित मौजूदगी के बिना फल-फूल ही नहीं सकती। केवल शिक्षक ही ऐसे सभ्य-सुशिक्षित मानवीय बोध वाले बीज मानव मस्तिष्क में अंकुरित कर पाता है जिससे ‘विविधता में एकता’ के बहुलता आधारित समावेशी समाज में रोपे गए नैतिक मूल्य ही व्यक्तित्व निर्माण का आधार बनते हैं जिनका महत्व जीवन भर बना रहता है। यही एक शिक्षक का राष्टृीय दायित्व है और उसकी वैश्विक सामाजिक भूमिका भी।
समाज में शिक्षक की भूमिका एक अच्छे शिक्षक को अपनी इसी भूमिका में संतोषप्रद जीवन जीते हुए भावी पीढ़ियों का निर्माण करना होता है। शिक्षक राष्ट्र-निर्माता के दायित्वों और जिम्मेदारियों से भी आगे बढ़कर, जब अपने स्नेह और प्रेम के दायरों का विस्तार करता है तो समाज में उसके विराट व्यक्तित्व से जो आलोक फैलता है वह उसकी रचनाधर्मिता को आधार उपलब्ध कराता है। तभी एक शिक्षक अपनी सर्वांगिण शक्तियों के साथ नवाचारों का उद्यम कर पाता है। नए सिरे से समाज और राष्ट्र को गढ़ने का काम करता है। नवाचार के नायक के रूप में यही वह भूमिका है जो शिक्षक को राष्ट्र-प्रहरी के साथ राष्ट्र-शिल्पी बनाती है और समाज में उसके प्रति अगाध आस्था के साथ श्रद्धा का विस्तार करती है।
भारतीय इतिहास अनगिनत घटनाओं का साक्षी है जहां सफलताएं गुरु-शिष्य परम्परा के अनवरत प्रवाह से उपजती रही हैं। इसलिए शिक्षा निभा पाएगा।
अब गंभीर सवाल यही उठता है कि यह नया शिक्षक कैसा हो? वह इस नई भूमिका का निर्वाह कैसे करे? शिक्षा की प्राथमिकताएं क्या हो और वह कौन-सा परिवेश है जिसमें शिक्षा बदल रही है? शिक्षा के बदलते परिवेश में नए शिक्षक की नई भूमिकाएं कौन सी है? 21वीं सदी में शिक्षक, शिक्षा और शिक्षण संस्थाएं सब के सब आमूल चूल बदलावों की तरफ बढ़ रहे है। प्राथमिकताओं का प्रण करना इतना सरल नहीं है।
समाज की अपनी जरूरतें है तो राजनीति के अपने अलग तकाजे हैं और बाजार तो खनन के ख्याल से बाहर कभी सोचता ही नहीं। ऐसे में सार्वभौमिकताओं को सहेजने वाली मानवता का दिग्दर्शन नई शैक्षिक संस्कृति में कैसे उभरे? यह उद्यम भरा दायित्व है। नए शिक्षक के कंधों पर आन पड़ा है। इस दृष्टि से विश्व एकीकरण और सामाजिक विखंडन को रोकने का जो महत्वपूर्ण दायित्व शिक्षक की नई भूमिका से जुड़ चुका है। नई पीढ़ी के चरित्र और मानस निर्माण में अग्रणी भूमिका से जुड़ा है। इसके लिए शिक्षक को उच्च लक्ष्यों का वरण और निर्धारण स्वयं करना होगा। उसे नवाचार का नायक बनना होगा, क्योंकि बचपन जीवन पर टेक्नोलॉजी का शिकंजा कसता जा रहा है। उससे मानवीय मौलिकताएं मरणासन्न हो रही है।
शिक्षा और शिक्षण के मूल्य मानवीय मूल्यों का तिरोहन सब तरफ हम सबके सामने हैं। ऐसे में एक सजग समाज का निर्माण शिक्षा की प्राथमिकता कैसे बने? नई आधुनिकताएं जिन नई नैतिकताओं पर टिकेंगी उनका प्रवाह शिक्षा के जरिए समाज में कैसे सम्प्रेषित हो? यह दुरूह दायित्व शिक्षक के सिवा कौन धारण कर उतरता है एक शिक्षक समाज-निर्माण के रणक्षेत्र में।
इस दृष्टि से नई सदी के नए अवसरों और चुनौतियों का चुनाव उन प्राथमिकताओं को ध्यान में रखकर करना होगा जो हमारी मानवता के भविष्य पर ही प्रश्न चिन्ह लगाने में संलग्न है। जिस तरह से आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का जिन्न जिन्नात की शक्ल में जमता जा रहा है। सम्पूर्ण मानव के नवाचार और बहुसंख्यक सामान्य जनों के जीवन की दैनंदिन जुगालिया।
किसी भी समाज के इन महान नायकों में नाम दर्ज है शिक्षक का, जो अपने समय की चुनौतियों और अवसरों का आहवाहन करता है। समाज की हर नई पीढ़ी को भावी योद्धाओं की तरह तैयार करता है। जो रचते हैं उस समय पर अपनी शिनाख्त और उकेरते हैं उस जगह पर अपनी सभ्यता के संदेश।
प्रकृति के अपने दो ही मौलिक संसाधन है-समय और स्थान, जिन पर सवार होकर वह प्रगति का आख्यान आहुत करती है। पहचान का प्रतिबिंब बनाने में भी यही सामग्री काम आती है। हर दौर हर क्षेत्र की दिक्कतों और दिव्यताओं को अपने ऊपर उकेर कर अतीत होने को अभिशप्त है। परन्तु हर दौर पर समय की गहरी छाप छूट ही जाती है। जिसमें छिपे होते हैं महान नायक का निर्माण हो सके। एक सजग और सामाजिक दृष्टि से सम्पन्न शिक्षक की उपस्थिति से ही स्कूल सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनैतिक व धार्मिक सद्भाव तथा नए मूल्यों के निर्माण-केंद्र बन जाते हैं। आज शिक्षा में ऐसी पद्धति को अपनाने की प्रबल परवाह है जिसके नए और युवा शिक्षक अधिक अनुभवी एवं ज्ञानवान शिक्षकों के साथ गहन संवाद जारी रख सके। नए और पुराने के बीच सेतु स्थापित कर नेतृत्व कर सके। परम्परा को नवाचारों की चासनी में पकाकर नये स्वाद और संवाद के साथ नई पीढ़ी में सम्प्रेषित कर सके।