इसमें दो राय नहीं है कि राजनीतिक दलों ने चुनावों में सफलता के शॉर्टकट के रूप में सब्सिडी को एक हथियार बना लिया है। लेकिन ऐसा करते वक्त वे राज्य की राजकोषीय वास्तविकताओं का ध्यान नहीं रखते। यही वजह है कि विधानसभा चुनाव के दौरान कई लोकलुभावन घोषणाएं करने वाले हिमाचल के मुख्यमंत्री ने राज्य की आर्थिक सेहत के मद्देनजर एक मजबूत फैसला लिया है। मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू के नेतृत्व वाली हिमाचल प्रदेश सरकार ने करदाता उपभोक्ताओं के लिए मुफ्त बिजली योजना को वापस लेने का महत्वपूर्ण फैसला लिया है। दरअसल, राज्य सरकार को यह कदम हिमाचल प्रदेश राज्य बिजली बोर्ड (एचपीएसईबी) के गंभीर वित्तीय संकट के मद्देनजर उठाना पड़ा है। एचपीएसईबी ने वित्तीय वर्ष 2023-24 में 18,000 करोड़ रुपये के घाटे की सूचना दी थी।
यह निर्णय विभिन्न आय वर्ग के उपभोक्ताओं को प्रभावित करता है। हालांकि, इस निर्णय में गरीबी की रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले वर्ग और अन्य कमजोर श्रेणियों के लोगों को राहत दी गई है। भारी कर्ज बोझ और राज्य अनुदान व जीएसटी आवंटन में घटते राजस्व के चलते एचपीएसईबी वित्तीय संकट का तनाव झेल रहा है। इस तरह शून्य बिजली बिल प्रावधान को ‘एक परिवार, एक मीटर’ तक सीमित करके तथा आधार व राशन कार्डों से कनेक्शन को जोड़कर इसे तर्कसंगत बनाने का प्रयास किया गया है। कहा जा रहा है कि इस कदम से बिजली बोर्ड को दो सौ करोड़ रुपये की बचत होगी।
निश्चित रूप से हिमाचल सरकार का यह फैसला राज्य की माली हालत के मद्देनजर राजकोषीय वास्तविकताओं का सामना करने पर चुनावी मुफ्त सुविधाओं की नुकसानदायक प्रवृत्ति को ही उजागर करता है। पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने तमाम लोकलुभावनी घोषणाओं के साथ राज्य में सरकार बनाई थी। यही वजह है कि लोग कांग्रेस सरकार पर चुनावी वायदे से मुकरने के आरोप लगा रहे हैं। उल्लेखनीय है कि मुफ्त बिजली योजना वर्ष 2022 में तत्कालीन मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर ने बड़े उत्साह के साथ आरंभ की थी। इस योजना के अंतर्गत चौदह लाख से अधिक उपभोक्ताओं को लाभ पहुंचाने का लक्ष्य तय किया गया था। लेकिन अब हिमाचल प्रदेश राज्य बिजली बोर्ड के आर्थिक संकट के मद्देनजर इस सब्सिडी का दायरा घटाया जा रहा है।
इसमें दो राय नहीं कि किसी भी लोक कल्याणकारी सरकार में आम आदमी को राहत पहुंचाना सराहनीय कदम है, लेकिन वहीं दीर्घकालीन उद्देश्यों को हासिल करने के लिए राज्य की सेहत को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। निश्चित रूप से हिमाचल सरकार के मौजूदा फैसले के कई गहरे निहितार्थ हैं। एक निष्कर्ष यह भी है कि चुनावी वायदों को राजकोषीय जिम्मेदारी के साथ जोड़कर देखने की आवश्यकता है। निस्संदेह, कोई भी सेवा और सुविधा मुफ्त नहीं मिलती। किसी भी सुविधा को मुफ्त देने से सेवा की गुणवत्ता पर प्रतिकूल असर पड़ता है। वह संस्थान और विभाग भी घाटे की अर्थव्यवस्था का शिकार होकर रह जाता है। मुफ्त की चीजें और सब्सिडी भले ही राजनीतिक लक्ष्यों को हासिल करने की दृष्टि से आकर्षक नजर आती हों, लेकिन उनके दीर्घकालिक आर्थिक प्रभावों को लेकर सावधानीपूर्वक विचार किया जाना चाहिए। निस्संदेह, सतत विकास और वित्तीय स्थिरता वाली नीतियों के निर्माण को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि राजनीतिक दलों की अल्पकालिक लाभ के लिए बनाई गई लोकलुभावनी नीति, राज्य के दीर्घकालिक नुकसान का कारण न बने। निस्संदेह राजनीतिक लाभ के लिए चुनावी आश्वासन महत्वपूर्ण हैं, लेकिन उन्हें राज्य की आर्थिक वास्तविकताओं के साथ संतुलित किया जाना चाहिए। यह भी एक हकीकत है कि किसी भी सरकार के लिए एक बार दिया गया लाभ या सब्सिडी वापस लेना, राजनीतिक दृष्टि से आसान नहीं होता।