उकेंद्रीय कैबिनेट ने एक साथ चुनाव कराने के विचार पर अमल करने की दिशा में आगे बढ़ने का फैसला किया। इस फैसले के संदर्भ में यह भी कहा गया कि 2029 यानी अगले लोकसभा चुनाव तक एक राष्ट्र-एक चुनाव का लक्ष्य हासिल कर लिया जाएगा। कैबिनेट के इस फैसले की घोषणा होते ही विपक्षी दलों ने घिसे-पिटे तर्कों के साथ इसका विरोध करना शुरू कर दिया। तर्क इसलिए गले नहीं उतरता, क्योंकि आंध्र प्रदेश और ओडिशा के क्षेत्रीय दलों ने कभी यह शिकायत नहीं की कि लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने से उन्हें नुकसान होता है। आंध्र प्रदेश और ओडिशा विधानसभा के चुनाव लोकसभा चुनाव के साथ होते रहने से यह आशंका भी निर्मूल साबित होती है कि मतदाता एक साथ होने वाले दोनों चुनावों में किसी एक ही दल को वोट देने के लिए प्रेरित हो सकते हैं।
वास्तव में क्षेत्रीय राजनीतिक दल जिन तर्कों का सहारा लेकर एक साथ चुनाव का विरोध कर रहे हैं, उनमें कोई दम नहीं। यह आश्चर्यजनक है कि जिस कांग्रेस के केंद्र की सत्ता में रहते समय कई बार लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ हुए, वह भी विरोध में खड़ी हो गई है। कुछ दलों ने तो एक साथ चुनाव के विचार को वास्तविक मुद्दों से जनता का ध्यान भटकाने का मोदी सरकार का हथकंडा करार दिया। लगता है ऐसा कहने वाले यह समझने को तैयार नहीं कि यह एक ऐसा विषय है, जो दलगत राजनीतिक हितों से ऊपर उठने की मांग करता है। यह वह विचार है, जिसे अमल में लाने के लिए राजनीतिक दलों को आमराय कायम करनी चाहिए, क्योंकि इससे राष्ट्रीय संसाधनों की बचत तो होगी ही, आम जनता, राजनीतिक दलों और सरकारों को अपने दायित्वों का निर्वहन करने में आसानी भी होगी। जो विपक्षी दल एक साथ चुनाव का विरोध कर रहे हैं, उनके पास ले देकर यही तर्क है कि लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने से राष्ट्रीय मुद्दे प्रांतीय मुद्दों पर हावी हो जाएंगे और इससे क्षेत्रीय दलों को नुकसान हो सकता है।
यह पर उनकी राय भी मांगी। इस समिति ने इसी वर्ष के आरंभ में अपनी रिपोर्ट राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु को सौंप दी थी। इस रिपोर्ट में विस्तार से यह बताया गया है कि एक साथ चुनाव कैसे हो सकते हैं और इसमें आने वाली बाधाओं को किस तरह दूर किया जा सकता है। पिछले दिनों केंद्रीय कैबिनेट ने एक साथ चुनाव कराने के विचार पर अमल करने की दिशा में आगे बढ़ने का फैसला किया। इस फैसले के संदर्भ में यह भी कहा गया कि 2029 यानी अगले लोकसभा चुनाव तक एक राष्ट्र-एक चुनाव का लक्ष्य हासिल कर लिया जाएगा। कैबिनेट के इस फैसले की घोषणा होते ही विपक्षी दलों ने घिसे-पिटे तर्कों के साथ इसका विरोध करना शुरू कर दिया। किसी ने कहा कि ऐसा करना संविधानसम्मत नहीं तो किसी ने दलील दी की यह व्यावहारिक नहीं। कुछ जनप्रतिनिधि तो अपने वादों को पूरा करने के बजाय जनता को यह आश्वासन देते रहते हैं कि यदि उनके दल को अगले विधानसभा या स्थानीय निकाय के चुनाव में जीत हासिल हुई तो वह अपने वादे को अवश्य पूरा करेंगे।
एक साथ चुनाव का विचार नया नहीं है, लेकिन इतना अवश्य है कि प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 में केंद्र की सत्ता संभालने के बाद से इसे आगे बढ़ाया और बार-बार इसकी पैरवी की कि एक साथ चुनाव कराए जाने चाहिए। उन्होंने इससे होने वाले लाभ भी गिनाए। एक साथ चुनाव के प्रति अपनी प्रतिबद्धता का परिचय देने के लिए ही मोदी सरकार ने लोकसभा चुनाव के पहले पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविन्द की अध्यक्षता में एक समिति गठित की। इस समिति में विरोधी दलों के भी कुछ नेता शामिल किए गए। इस समिति ने सभी दलों के नेताओं से व्यापक विचार-विमर्श किया और एक साथ चुनाव के विषय आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, ओडिशा और सिक्किम की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही हुए।
एक राष्ट्र-एक चुनाव के विषय पर इसलिए गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए, क्योंकि लोकसभा चुनाव के बाद रह-रहकर होने वाले विधानसभाओं और स्थानीय निकायों के चुनाव सरकारी कामकाज की गति को बाधित करने, नौकरशाही एवं जनता का ध्यान बंटाने और राजनीतिक दलों की प्राथमिकता बदलने का काम करते हैं। जब भी कहीं कोई चुनाव होते हैं, आचार संहिता प्रभावी हो जाती है और उसके चलते कई सरकारी कामकाज रुक जाते हैं और सरकारें इस दौरान कोई नीतिगत फैसला भी नहीं ले पातीं। बार-बार होने वाले चुनावों के कारण अच्छा-खासा समय चुनाव आचार संहिता की भेंट चढ़ जाता है। सरकारें और जनप्रतिनिधि कई बार अपने वादों को पूरा न कर पाने के लिए आचार संहिता को दोष देते हैं।
संजय गुप्त
इन दिनों एक साथ चुनाव की चर्चा हो रही है। इस बहस के संदर्भ में यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि स्वतंत्रता के उपरांत लगातार चार बार लोकसभा और विधानसभा के चुनाव साथ-साथ ही हुए। यह सिलसिला 1951-52 से लेकर 1967 तक कायम रहा। यह सिलसिला टूटा इसलिए, क्योंकि कई राज्य सरकारों को बर्खास्त कर दिया गया या विधानसभाओं को समय से पहले भंग कर दिया गया। एक कारण यह भी रहा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राजनीतिक लाभ लेने की खातिर समय से पहले लोकसभा भंग कराकर आम चुनाव कराना पसंद किया। एक तथ्य यह भी है कि 1967 के बाद लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का सिलसिला टूटने के उपरांत भी वर्तमान में लोकसभा के साथ कई राज्यों के विधानसभा चुनाव होते हैं।