एक देश एक चुनाव: सपना जितना लुभावना उतना ही मुश्किल भी, आखिर कितना चुनौतीपूर्ण है यह कार्य?
जयसिंह रावत
पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में गठित एक राष्ट्र एक चुनाव विषय को लेकर गठित उच्चाधिकार प्राप्त समिति की रिपोर्ट को स्वीकार करने के बाद अब इस मुद्दे पर संवैधानिक प्रक्रियाएं शुरू होने के साथ ही व्यापक राष्ट्रीय चर्चा शुरू हो जाएगी।
कोविंद समिति की सिफारिशों के अनुसार “एक राष्ट्र एक चुनाव” का युगांतरकारी उद्देश्य दो चरणों में लागू होना है, जिसमें पहले चरण में लोकसभा और विधानसभा का निर्वाचन एक साथ कराना और दूसरे चरण में आम चुनावों के 100 दिनों के भीतर स्थानीय निकाय के लिए निर्वाचन (पंचायत और नगर पालिका) कराना शामिल है। सिफारिशों के अनुसार सभी निर्वाचनों के लिए एक समान मतदाता सूची बनेगी और राष्ट्रव्यापी चर्चा के बाद एक कार्यान्वयन समूह का गठन होगा।
एक साथ नगर निकायों से लेकर संसद के चुनाव कराने की प्रक्रिया को कुछ आसान बनाने के लिए ही इस सम्पूर्ण संवैधानिक और राजनीतिक कसरत को दो भागों में बांटा गया है। अब देखना यह है कि मोदी सरकार का यह अति महत्वाकांक्षी सपना किस तरह साकार होता है, क्योंकि “एक राष्ट्र एक चुनाव” का नारा जितना लुभावना लगता है उतना आसान कतई नहीं है।
इसके लिए महत्वपूर्ण संविधान संशोधनों के साथ ही राष्ट्रीय सहमति की भी महती आवश्यकता है और विपक्ष से, खासकर विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस से इस विचार को समर्थन मिलने की संभावना को पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे ने सिरे से खारिज कर दिया है। इस समय पक्ष और विपक्ष जानी दुश्मन का जैसा व्यवहार कर रहे हैं। भाजपा अपने बलबूते पर नहीं बल्कि सहयोगी दलों के समर्थन से सत्ता में है।
हाल ही में मोदी सरकार को जिस तरह कुछ निर्णयों को लेकर बैकफुट पर आना पड़ा उससे सरकार के एक साथ चुनाव कराने की महत्वांकाक्षी योजना के भविष्य पर सवाल उठना स्वाभाविक ही है।
भारत के संविधान में राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर एक साथ चुनाव का प्रावधान नहीं है। इस विचार को धरातल पर उतारने के लिए संविधान में संशोधन के लिए राजनीतिक सहमति और एक लंबी प्रक्रिया की आवश्यकता होगी। राज्य विधानसभाओं और लोकसभा के लिए निश्चित शर्तें समकालिक नहीं हैं। इन शर्तों के समन्वय के लिए दोनों स्तरों पर संवैधानिक संशोधन और कानूनी बदलाव की आवश्यकता होगी। संविधान के जानकारों के अनुसार इसके लिए कम से कम संविधान के 5 अनुच्छेदों में संशोधन करना पड़ेगा।
अनुच्छेद 83 खंड (2) के तहत लोकसभा का कार्यकाल ठीक 5 साल तय किया गया है। संसद के सत्र के संबंध में संविधान के अनुच्छेद 85 में प्रावधान किया गया है। किसी राज्य की विधानसभा का कार्यकाल संविधान के अनुच्छेद 172 द्वारा निर्धारित किया गया है।
संविधान आपातकाल की घोषणा की स्थिति में विधानसभा के कार्यकाल के विस्तार की भी अनुमति देता है। इसी अनुच्छेद में प्रावधान है कि आपातकाल की उद्घोषणा प्रवर्तन में होने की स्थिति में संसद विधि द्वारा ऐसी अवधि एक बार में एक वर्ष तक बढ़ा सकती है और उद्घोषणा के प्रवर्तन में न रहने पर इसका विस्तार छह माह तक हो सकता है।
राज्य की संवैधानिक मशीनरी के खराब होने की स्थिति में केंद्र सरकार अनुच्छेद 356 का उपयोग कर राज्य के प्रशासन का नियंत्रण ग्रहण कर सकती है। केंद्र शासित प्रदेशों, जिनकी अपनी विधानसभाएं नहीं हैं, की विशिष्ट स्थिति को समायोजित करने के लिए भी आवश्यक प्रावधान करने होंगे।
आजादी के बाद पहले चुनाव से लेकर 1957, 1962 और 1967 में भी लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराए गए। लेकिन दलबदल, राजनीतिक अस्थिरता तथा अनुच्छेद 356 के बार-बार इस्तेमाल के कारण एक साथ चुनाव का क्रम टूट गया।
अब अविश्वास प्रस्तावों और विधानसभा विघटन से संबंधित प्रासंगिक प्रावधानों में संशोधन की आवश्यकता भी होगी।
चुनाव के समय में बदलाव के लिए दसवीं अनुसूची (दलबदल विरोधी कानून) में संशोधन भी करना होगा। भारत में संवैधानिक संशोधनों के लिए लोकसभा और राज्यसभा में दो-तिहाई बहुमत और कम से कम आधे राज्य विधानमंडलों द्वारा समर्थन की आवश्यकता होती है।
तर्क दिया जा रहा है कि जब निर्वाचन आयोग महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के चुनाव एक साथ नहीं करा सकता और बंगाल जैसे राज्य में 7 चरणों में चुनाव होते हैं तो पूरे देश में एक साथ चुनाव कैसे कराए जाएंगे?
एक साथ चुनाव होने से चुनाव आयोग, सुरक्षा बलों और प्रशासनिक मशीनरी पर भारी दबाव पड़ेगा।
नयी व्यवस्था से राष्ट्रीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित हो सकता है और क्षेत्रीय चिंताओं की उपेक्षा हो सकती है, जो संभावित रूप से संघवाद को कमजोर कर सकती है।