डॉ. प्रशांत बड़थ्वाल
हिंदुत्व केवल एक धर्म का नहीं, बल्कि एक जीवनशैली, एक विचारधारा और एक गहन सांस्कृतिक चेतना का प्रतीक है। यह हिंदू समाज की आत्मा में निहित विचारधारा है, जो उसे उसकी परंपराओं, रीति-रिवाजों और मान्यताओं से जोड़ती है। हिंदुत्व जो प्रत्येक हिंदू की अंतरआत्मा में निहित है, वह केवल एक धार्मिक विचारधारा नहीं है, बल्कि एक जीवनशैली, एक दर्शन और एक सामाजिक व्यवहार है जो हजारों वर्षों से हिंदू समाज का मार्गदर्शन करता आया है।

हिंदुत्व केवल एक धर्म का नहीं, बल्कि एक जीवनशैली, एक विचारधारा और एक गहन सांस्कृतिक चेतना का प्रतीक है। यह हिंदू समाज की आत्मा में निहित विचारधारा है, जो उसे उसकी परंपराओं, रीति-रिवाजों और मान्यताओं से जोड़ती है। हिंदुत्व को अक्सर एक संकीर्ण परिप्रेक्ष्य में देखा जाता है, जहां इसे कट्टरवाद या अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णुता के प्रतीक के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। परंतु सच्चाई इससे कहीं अधिक व्यापक और गहन है।

हिंदुत्व का अर्थ केवल धर्म या धार्मिक अनुष्ठानों से संबंधित नहीं है, बल्कि यह संपूर्ण हिंदू संस्कृति, परंपराओं, सामाजिक व्यवस्थाओं और जीवन के सभी पहलुओं को समाहित करता है। सावरकर ने इसे व्यापक रूप में परिभाषित करते हुए कहा कि हिंदुत्व का मतलब “हिंदू होना” नहीं है, बल्कि वह भावना है जो हिंदू समाज को एकजुट करती है। यह दर्शन न केवल धार्मिक मूल्यों पर आधारित है, बल्कि सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में भी गहरे रूप से जड़ित है। वामपंथी इतिहासकारों ने अक्सर हिंदुत्व को धर्म के संकीर्ण दृष्टिकोण से देखा है, जो कि हिंदुत्व की वास्तविक व्यापकता को समझने में असमर्थता दर्शाता है।

हिंदुत्व और भारतीय संस्कृति
हिंदुत्व किसी एक धर्म या पंथ तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति की समग्रता का प्रतीक है, जिसमें जीवन के सभी क्षेत्रों में समरसता और संतुलन की भावना को महत्व दिया गया है। हिंदुत्व की अवधारणा सदियों पुरानी है। यह केवल धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं है, बल्कि भारतीय सभ्यता की सांस्कृतिक धरोहर, रीति-रिवाजों, परंपराओं और दर्शन का मूल स्रोत है। प्राचीन काल से ही हिंदू धर्म ने ‘सर्वधर्म समभाव’ और ‘वसुधैव कुटुंबकम’ जैसे विचारों को अपने केंद्र में रखा है। हिंदुत्व इसी उदारता और समावेशी दृष्टिकोण का प्रतिनिधित्व करता है।

भारत के सांस्कृतिक एकीकरण के संदर्भ में यह विचारधारा महत्वपूर्ण है, जहां विभिन्न भाषाओं, जातियों और धर्मों के बावजूद एक गहरी सांस्कृतिक एकता है। वामपंथी इतिहासकारों द्वारा यह कहा गया है कि हिंदुत्व एक आधुनिक औपनिवेशिक निर्माण है और इसका इतिहास में कोई ठोस आधार नहीं है। यह धारणा हिंदुत्व के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक आधार की गलत समझ पर आधारित है।

हिंदुत्व का ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व
प्राचीन ग्रंथों और वैदिक साहित्य में जो विचारधाराएं प्रस्तुत की गई हैं, वे स्पष्ट रूप से हिंदुत्व के विचार को समर्थन देती हैं। यज्ञ, तप, ध्यान, और दान जैसे धार्मिक कार्यों के माध्यम से एक व्यक्ति को व्यक्तिगत और सामाजिक उन्नति के मार्ग पर प्रेरित किया गया। ये कार्य केवल धर्म के रूप में नहीं, बल्कि एक समग्र जीवनशैली के रूप में देखे गए, जो हिंदुत्व का मूल सिद्धांत है।

हिंदुत्व की जड़ें वैदिक काल से लेकर आज तक की भारतीय सभ्यता में फैली हुई हैं। वैदिक काल में आर्य समाज के मूल्यों और आध्यात्मिक विचारधारा के माध्यम से हिंदुत्व का विकास हुआ। इसके बाद, महाकाव्यों, जैसे कि रामायण और महाभारत, ने हिंदू समाज को धार्मिक, नैतिक और सांस्कृतिक दिशा दी। भक्ति आंदोलन और वेदांत दर्शन ने हिंदुत्व की आध्यात्मिक गहराई को बढ़ावा दिया, जबकि विभिन्न सामाजिक सुधार आंदोलनों ने इसे समयानुसार परिष्कृत किया।

वामपंथी इतिहासकारों का यह दावा कि हिंदुत्व भारतीय समाज में साम्प्रदायिकता और विभाजन को बढ़ावा देता है, वस्तुतः हिंदुत्व की वास्तविकता से दूर है। वास्तव में, हिंदुत्व का उद्देश्य संपूर्ण भारतीय समाज को एकजुट करना है। यह सभी धर्मों और मान्यताओं के प्रति सहिष्णुता और सम्मान का प्रचार करता है।

हिंदुत्व का समावेशी दृष्टिकोण
हिंदुत्व के अनुसार, भारत की सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता उसकी सबसे बड़ी ताकत है, और यह विविधता सह-अस्तित्व की भावना के आधार पर संरक्षित और संवर्धित होनी चाहिए। वामपंथी इतिहासकारों का यह तर्क कि हिंदुत्व विभाजनकारी है, हिंदुत्व के वास्तविक स्वरूप को गलत ढंग से समझने का परिणाम है। वास्तव में, हिंदुत्व का उद्देश्य संपूर्ण भारतीय समाज को एकजुट करना है।

भारत में बौद्ध, जैन और सिख पंथ के साथ-साथ इस्लाम और ईसाई पंथ ने भी अपनी पहचान बनाई, लेकिन यह सब हिंदुत्व की व्यापक छाया में फलते-फूलते रहे हैं। हिंदुत्व जाति और वर्ग के पार जाकर एक समावेशी समाज की स्थापना का आदर्श रखता है। स्वतंत्रता संग्राम के समय में भी, हिंदू और मुसलमान दोनों ही एकजुट होकर अंग्रेजी शासन के खिलाफ लड़े।

हिंदुत्व और राष्ट्रीय पुनर्जागरण
हिंदुत्व केवल धार्मिक या सांस्कृतिक पहचान तक सीमित नहीं है, बल्कि यह भारत के राष्ट्रीय चरित्र का एक अभिन्न अंग है। गांधी से लेकर विवेकानंद तक, सभी ने भारतीय संस्कृति और हिंदू दर्शन को राष्ट्रीय पुनर्जागरण के संदर्भ में देखा है। हिंदुत्व ने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को भी प्रेरित किया और भारतीय समाज को औपनिवेशिक मानसिकता से मुक्त करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। वामपंथी इतिहासकार इस तथ्य को अनदेखा करते हैं कि हिंदुत्व ने भारतीय राष्ट्रवाद को एक नई दिशा दी और इसे उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद के खिलाफ संघर्ष में प्रेरित किया।