लेखक: जीवन कुमार
उत्तर प्रदेश पुलिस ने मुजफ्फरनगर और पश्चिमी यूपी के अन्य इलाकों में कांवड़ यात्रा मार्ग पर होटल, ठेले पर फल या अन्य खाने-पीने का सामान बेचने वाले लोगों से मालिक और कर्मचारियों के नाम लिखकर लगाने को कहा है। और कम से कम इन पंक्तियों के लिखे जाने तक इस विवादास्पद फैसले को वापस नहीं लिया गया है।
कांवड़ यात्रा को लेकर पहले भी कई किस्म के धार्मिक पूर्वाग्रह देखे जा चुके हैं। जैसे कांवड़ यात्रा के लिए करीब 33 हजार पेड़ों को काटने का फैसला लिया गया, ताकि सड़क चौड़ी हो और श्रद्धालुओं को सुविधा हो। जब पेड़ों के काटे जाने पर विरोध दर्ज कराया गया तब राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण ने उन इलाकों की सेटेलाइट तस्वीर मांगी, जहां पेड़ काटे गए। लेकिन इस कार्रवाई से हरियाली पर चली कुल्हाड़ी बेअसर तो नहीं हुई।
इसी तरह कुछ समय पहले कांवड़ियों पर यूपी के एक डीजीपी ने सरकारी हेलिकॉप्टर से फूल बरसाए थे, जो सरासर प्रशासनिक दायित्व और नैतिकता का उल्लंघन था। सरकार और प्रशासन की ओर से लिए गए इन फैसलों को मानसिक दिवालियापन की श्रेणी में रखा जा सकता है। लेकिन अब जो फैसला लिया है, वह खुली चेतावनी दे रहा है कि भारत तेजी से नाजी दौर वाली जर्मनी के युग में धकेला जा रहा है।
पाठकों को याद दिला दें कि जर्मन तानाशाह हिटलर के प्रचार मंत्री जोसेफ गोएबल्स ने मई 1938 में जर्मन यहूदियों के लिए “सामान्य पहचान चिह्न” का सुझाव दिया था। जिसके बाद नाजी अधिकारियों ने 1939 और 1945 के बीच यहूदियों को पीले सितारे वाले बैज को लगाने का आदेश दिया था, ताकि उन्हें अलग से पहचाना जा सके और उनकी गतिविधियों पर नजर रखी जाए। जो यहूदी अपनी पहचान बताने वाले बैज को नहीं पहनता था, उसे अपमानित और दंडित किया जाता था। पहचान के नाम पर नागरिकों में भेद करने का जो काम सौ साल पहले जर्मनी में हुआ, क्या वैसे ही किसी कृत्य के लिए आज के भारत में कोई स्थान होना चाहिए, यह एक गंभीर सवाल है, जिस पर सभी लोगों को विचार करना चाहिए।
वैसे उत्तर प्रदेश पुलिस के इस आदेश की निंदा होनी शुरू हो चुकी है। अखिलेश यादव और असद्दुदीन ओवैसी जैसे नेताओं ने इसकी भर्त्सना की है। माननीय न्यायालय से यह अपेक्षा जताई गई है कि वह इस संबंध में स्वतः संज्ञान लेगी। हालांकि उत्तर प्रदेश पुलिस ने इस फैसले के पक्ष में दलील दी है कि यात्रियों को “किसी भी भ्रम से बचने के लिए” ये निर्देश कांवड़ यात्रा रूट के लिए खासतौर पर जारी किए गए हैं। पुलिस का कहना है कि ऐसा इसलिए किया जा रहा है कि ताकि कांवड़ियों के बीच कोई भ्रम न हो और भविष्य में कोई आरोप न लगे, जिससे कानून व्यवस्था की स्थिति पैदा हो। पुलिस ने दावा किया कि हर कोई अपनी मर्जी से इसका पालन कर रहा है।
एक लचर तर्क यह भी दिया गया है कि इस आदेश का इरादा किसी भी प्रकार का “धार्मिक भेदभाव” पैदा करना नहीं था, बल्कि केवल भक्तों को सुविधा देना था। पुलिस अधिकारियों ने कहा है कि, “अतीत में ऐसे मामले सामने आए हैं, जहां कांवड़ मार्ग पर सभी प्रकार के खाद्य पदार्थ बेचने वाले कुछ दुकानदारों ने अपनी दुकानों का नाम इस तरह रखा, जिससे कांवड़ियों के बीच भ्रम पैदा हुआ और कानून-व्यवस्था की स्थिति पैदा हो गई।”
अब सवाल यह है कि कानून व्यवस्था को बनाए रखने की जिम्मेदारी पुलिस की है या दुकानदारों की। इस देश का संविधान किसी को भी अपनी मर्जी का नाम रखने से नहीं रोकता है, फिर चाहे वह संतान का नाम हो या दुकान का। और अगर धर्म का पालन करने के नाम पर कांवड़ लेकर निकल रहे लोगों में इतनी समझ और सहनशक्ति नहीं है कि वह किसी के नाम से ही आहत हो जाएं तो फिर उनके धार्मिक होने पर ही संदेह है।
अगर किसी को दूसरे धर्म के लोगों से खाद्य सामग्री खरीदने में धर्मभ्रष्ट होने का खतरा दिखता है, तो फिर ऐसे संकुचित मानसिकता के लोगों को यह भी पता कर लेना चाहिए कि जिस सड़क पर वो चलेंगे, उसे बनाने वाले कौन से धर्म के थे, जिन कपड़ों को वे पहनेंगे, उसका धागा कहां से आया, जिस कांवड़ को वे ढोएंगे, उसे किस जाति, धर्म के लोगों ने बनाया। रास्ते में जिन शामियानों के नीचे वो आराम करने बैठेंगे या जिन लाउड स्पीकरों पर वे तेज आवाज में अपनी भक्ति का प्रदर्शन करेंगे, उसे किन लोगों ने बनाया है।
केवल विधर्मी दुकानदारों से सामान न खरीद कर क्या होगा, धर्मांधता का पालन करना है तो फिर सारे मापदंडों के साथ करें। यह देखना दुखद है कि यह धर्मांधता अब राज्य प्रायोजित हो चुकी है। कोरोनाकाल में तब्लीगी जमात के लोगों पर पहले कोरोना के प्रसार का इल्जाम लगाया गया, तब अस्पतालों में इसी तरह की शिनाख्त का सिलसिला शुरु हुआ। उसी दौरान अल्पसंख्यकों के आर्थिक बहिष्कार के कई उदाहरण सामने आए। तब भी इन कार्यों की निंदा हुई, लेकिन छोटे पैमाने पर और समाज ने तब सरकार से इस नफरती कारोबार का हिसाब नहीं मांगा। नतीजा ये हुआ कि आर्थिक जेहाद का सिलसिला आगे भी चला और अब बात नाम से पहचान उजागर करने तक पहुंच गई है।