इस लेख में संजय अभिज्ञान द्वारा टाइप वन डायबिटीज (टीवनडी) से जुड़े कई महत्वपूर्ण मुद्दों और चुनौतियों पर चर्चा की गई है। लेख में यह बताया गया है कि कैसे इस बीमारी से पीड़ित बच्चे और किशोर-किशोरियां सामाजिक भेदभाव और मानसिक तनाव का सामना करते हैं। इस बीमारी का प्रभाव केवल शारीरिक नहीं है, बल्कि मानसिक और सामाजिक स्तर पर भी गहरा है।
समस्या की जड़ें
लेख के अनुसार, टीवनडी एक गंभीर और जानलेवा बीमारी है, जो अब संक्रामक महामारियों से भी अधिक खतरनाक हो गई है। यह बीमारी खासतौर पर बच्चों और किशोरों को प्रभावित करती है, जो इंसुलिन की सुइयां लेने के लिए बाथरूम या किसी कोने में छिपकर जाते हैं, क्योंकि उन्हें डर होता है कि कोई देख न ले।
लेख में बताया गया है कि मधुमेह के रोगियों में इस बीमारी को लेकर मानसिक तनाव और अवसाद का भी खतरा होता है, जो कभी-कभी उन्हें आत्महत्या तक ले जा सकता है। यूनिसेफ और अन्य अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा टीवनडी के मरीजों की मानसिक स्थिति और सामाजिक कलंक को कम करने के लिए प्रयास किए जा रहे हैं।
टीवनडी के इलाज का खर्च बहुत अधिक होता है। एक आम बच्चे के इंसुलिन, ग्लूकोमीटर, इंजेक्शन, और अन्य दवाओं पर प्रति माह औसतन 3,500 रुपये खर्च होते हैं। यह आर्थिक बोझ कई परिवारों के लिए असहनीय होता है, जिससे वे इलाज को टालने या छोड़ने पर मजबूर हो जाते हैं। इसके अलावा, स्कूल-कॉलेजों में मधुमेह पीड़ित छात्र-छात्राओं को उचित रियायतें नहीं मिलतीं, जिससे वे सामाजिक भेदभाव का शिकार होते हैं।
लेख में बताया गया है कि इस बीमारी के खिलाफ वैश्विक स्तर पर लड़ाई लड़ी जा रही है। भारत में भी कुछ प्रमुख हस्तियों ने इस मुद्दे पर खुलकर बात की है और टीवनडी से पीड़ित लोगों के लिए काम कर रही संस्थाओं का समर्थन किया है। लेख में यह सुझाव दिया गया है कि अस्पतालों में टीवनडी मरीजों से सही भाषा में बात की जानी चाहिए, जिससे वे मानसिक और सामाजिक तनाव से उबर सकें।
सरकार की भूमिका
लेख में यूनिसेफ की अपील का भी जिक्र है, जिसमें सरकार से बच्चों के स्वास्थ्य के लिए सस्ते और सुलभ स्वास्थ्य ढांचे की मांग की गई है। लेख के अनुसार, सरकारों को टीवनडी के इलाज का खर्च वहन करना चाहिए, ताकि बच्चों को इंसुलिन की नियमित खुराक मिल सके और वे सामान्य जीवन जी सकें।
कुल मिलाकर, लेख में यह स्पष्ट किया गया है कि टाइप वन डायबिटीज एक गंभीर बीमारी है, जो केवल शारीरिक नहीं, बल्कि मानसिक और सामाजिक स्तर पर भी गहरा प्रभाव डालती है। इसके इलाज और सामाजिक कलंक को मिटाने के लिए सरकार, समाज और चिकित्सा जगत को मिलकर काम करना होगा।