अजय बोकिल
इन दिनों जाति जनगणना, आरक्षण की अधिकतम सीमा 50% को खत्म कर इसे बढ़ाने, एससी वर्ग में भी क्रीमी लेयर लागू करने के सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले के विरोध और समर्थन, 2011 की जनगणना में जाति गणना के आंकड़े तत्कालीन यूपीए 2 सरकार और बाद में मोदी सरकार द्वारा जारी करने से कन्नी काटने तथा बिहार के नवादा में दलितों द्वारा महादलितों के घरों में आग लगाने के घटनाक्रमों को आपस में जोड़कर देखें तो पता चलेगा कि देश अब जातियों के अंतर्संघर्ष के नए और डरावने दौर में प्रवेश कर गया है। इसका अंजाम कितना भयंकर होगा, इसे राजनीतिक दल समझ कर भी अनदेखा कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें केवल सत्ता हासिल करने से मतलब है। फिर चाहे वह किसी भी कीमत पर मिले।

नवादा अग्निकांड और बिहार में जातीय सियासत का नया चेहरा
पहले नवादा के अग्निकांड को समझें। अमूमन बिहार और अन्य राज्यों में दलित उत्पीड़न के लिए ऊंची और दबंग पिछड़ी जातियों को ही दोषी माना जाता रहा है, क्योंकि ज्यादातर संसाधनों पर इन्हीं जातियों का कब्जा रहा है। लेकिन बिहार के नवादा जिले के मुफस्सिल थाना क्षेत्र के महादलित टोला में हाल के दिनों में महादलितों की जमीनों पर कब्जा करने के लिए उनके घर फूंकने के मामले में जो नया एंगल सामने आया है, वह जातीय संघर्ष के नए दौर और दबंगई की नई परिभाषा की ओर गंभीर इशारा करता है।

इस घटना के बाद हो रहे राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप को दरकिनार कर इसका विश्लेषण करें तो इस दबंगई का मुख्य आरोपी नंदू पासवान है, जो स्वयं दलित समुदाय से है और पुलिस ने उसे गिरफ्तार कर लिया है। पुलिस रिपोर्ट के मुताबिक अन्य 28 लोगों पर एफआईआर दर्ज की गई और 15 लोगों को गिरफ्तार किया गया है। दूसरा मुख्य आरोपी यादव समुदाय से है। जिन लोगों के घर फूंके गए, वे रविदास और मुसहर महादलित समुदाय से आते हैं। संक्षेप में, यह दबंग दलित द्वारा महादलितों पर अत्याचार का मामला है।

बीजेपी ने इस अग्निकांड को ‘अंतर-दलित संघर्ष’ की संज्ञा दी है, जबकि बाकी दल इसे दलित अत्याचार से जोड़कर बिहार में कानून व्यवस्था की ध्वस्त स्थिति बता रहे हैं। लेकिन जो घटा है, उसका सीधा अर्थ यही है कि जिसके पास जमीन है, वही अब दबंग है, और यहां उसकी जाति गौण हो गई है। यह पारंपरिक जातिगत दबंगई से अलग है। इसमें यह संकेत भी निहित है कि जैसे-जैसे वंचित समाज के पास जमीन और अन्य संसाधन आते जाएंगे, वह अपने ही वर्ग की दूसरी वंचित जातियों पर अत्याचार करने में संकोच नहीं करेगा। यह तो अभी शुरुआत है।

आरक्षण और सुप्रीम कोर्ट का फैसला
दूसरा संदर्भ सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाल के अपने फैसले में आरक्षित वर्ग की अनुसूचित जाति और जनजातियों में ओबीसी की तरह क्रीमी लेयर लागू करने का है। मोदी सरकार ने इस फैसले के व्यापक विरोध के चलते इसे ‘सुझाव’ बताकर ठंडे बस्ते में डाल दिया है, लेकिन इसे कितने दिन दबाया जा सकेगा, यह देखने की बात है। इस संदर्भ में हमें यह भी देखना होगा कि इसका विरोध किस वर्ग से हो रहा है।

फैसले का विरोध मुख्यत: उन दलित और आदिवासी समुदायों की तरफ से हो रहा है, जो बीते 75 सालों में आरक्षण के चलते सबसे ज्यादा फायदे में रहे हैं। आरक्षण अब उनका जन्मसिद्ध अधिकार बन चुका है। लिहाजा सुप्रीम कोर्ट का फैसला उन्हें अपने लाभ में खलल की तरह महसूस हो रहा है। दूसरी तरफ, इस फैसले के पक्ष में भी आवाजें उठने लगी हैं, हालांकि यह अभी बहुत मुखर नहीं हैं। पंजाब में मजहबी सिखों और वाल्मीकि समुदाय ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का स्वागत किया है, जबकि रविदासिया दलित इसके विरोध में हैं।

जाति जनगणना और आरक्षण
अब जाति जनगणना, उसके आंकड़े जारी करने और तदनुसार आरक्षण की सीमा बढ़ाने की बात करें। जाति जनगणना और आरक्षण की अधिकतम सीमा इन दिनों कांग्रेस और अन्य विपक्षी पार्टियों के हॉट इश्यू बने हुए हैं। माना जा रहा है कि अगले चुनावों में भाजपा को पटखनी देने का यह रामबाण नुस्खा साबित हो सकता है। हालांकि खुद भाजपा भी अब जाति जनगणना कराने के पक्ष में दिख रही है।

लेकिन असली सवाल यह है कि जाति जनगणना कराने के बाद सामाजिक न्याय का संघर्ष क्या मोड़ लेगा? क्योंकि यह महज डेटा एकत्रित कर उसे जारी करने भर का मामला नहीं है।