मरिआना बाबर

पाकिस्तान के प्रधान न्यायाधीश काजी फैज ईसा अपनी कलम के एक झटके से फरवरी में हुए चुनाव को रद्द कर सकते हैं और अगर ऐसा हुआ, तो पाकिस्तान के संविधान के मुताबिक, 90 दिनों के भीतर फिर से चुनाव कराने होंगे। यह डर न केवल प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ और उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों के मन में है, बल्कि सुरक्षा प्रतिष्ठान (सेना) भी इससे काफी आशंकित है, क्योंकि अदालत में इमरान खान (जो फिलहाल जेल में हैं) की पार्टी पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ द्वारा दायर मामले की सुनवाई चल रही है, जिसमें नए सिरे से चुनाव कराए जाने की मांग की गई है। फिलहाल पाकिस्तान का सुप्रीम कोर्ट अवकाश पर है और सितंबर में कभी भी अदालत की कार्रवाई शुरू हो सकती है। काजी ईसा इस साल 25 अक्तूबर को सेवानिवृत्त हो रहे हैं। उन्होंने साफ कर दिया है कि अगर उन्हें सेवा विस्तार का प्रस्ताव दिया जाता है, तो वे उसे स्वीकार करने में रुचि नहीं रखते हैं।

अब पाकिस्तान और विदेश में भी यह बिल्कुल स्पष्ट हो गया है कि फरवरी में हुए चुनाव के नतीजे निष्पक्ष नहीं थे और सुरक्षा प्रतिष्ठान द्वारा इमरान खान एवं उनकी पार्टी को स्पष्ट जीत से वंचित रखने के लिए हर गलत कदम उठाया गया। पाकिस्तान के लोगों ने इमरान खान को इसलिए भारी मत दिया, क्योंकि उनके पास जनाधार था। इसके अलावा, लोग शहबाज शरीफ और पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) की पिछली सरकार से तंग आ चुके थे, जिसके पीछे भयंकर महंगाई और बेरोजगारी प्रमुख वजह थी। शहबाज शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज (पीएमएल-एन) के कई बड़े और वरिष्ठ नेता चुनाव हार गए। यहां तक कि पीएमएल-एन के अध्यक्ष नवाज शरीफ भी बड़ी मुश्किल से अपनी सीट बचा पाए। चुनाव में पीएमएल-एन के खराब प्रदर्शन के कारण नवाज शरीफ ने फिर से प्रधानमंत्री बनने का विचार त्याग दिया।

पाकिस्तान में इस समय संस्थाओं में तीखे एवं गंभीर मतभेद हैं। एक तरफ स्वतंत्र सुप्रीम कोर्ट है, जिसने हाल ही में विभिन्न मामलों में पीटीआई को भारी राहत दी है। सुप्रीम कोर्ट के पिछले फैसले के चलते पीटीआई को नेशनल असेंबली में सीटें वापस मिल गईं, जो चुनाव आयोग द्वारा सत्तारूढ़ पार्टी को दे दी गई थीं। शुक्र है कि चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर सहमति जताई है। दूसरी तरफ, सुरक्षा प्रतिष्ठान स्पष्ट रूप से सुप्रीम कोर्ट से नाराज है, क्योंकि वह नहीं चाहता कि इमरान खान या उनकी पार्टी पीटीआई को कोई राहत मिले। वास्तव में, इमरान खान और उनकी पत्नी बुशरा खान के खिलाफ कई मामले अदालतों में हैं और उन्हें जेल में रखने के लिए रातों-रात नए मामले दर्ज किए जा रहे हैं। इमरान खान का जेल से बाहर रहना, दोनों पक्षों के लिए खतरा है। अगर फिर से चुनाव होते हैं, तो इमरान खान दो तिहाई बहुमत से जीत हासिल करेंगे। सुरक्षा प्रतिष्ठान ने गलत कार्ड खेला। इमरान खान को प्रताड़ित करके और पूरे मुल्क में उनके कार्यकर्ताओं को परेशान करके उन्होंने इमरान खान को सुपर हीरो बना दिया।

संयुक्त राष्ट्र, अमेरिकी संसद (दोनों दलों ने भारी बहुमत से समर्थन किया) और हाल ही में ब्रिटेन की हाउस ऑफ कॉमन्स ने भी इमरान खान का समर्थन किया है। पाकिस्तान में शहबाज शरीफ और सुरक्षा प्रतिष्ठान एकमत हैं। इसलिए सबकी नजरें सुप्रीम कोर्ट की तरफ लगी हैं कि वह सितंबर में क्या फैसला सुनाता है। चूंकि कोई भी पक्ष पीछे हटने को तैयार नहीं है, इसलिए राजनीतिक उथल-पुथल के चलते मुल्क में अस्थिरता पैदा हो रही है। हालांकि आपातकाल घोषित करने या मार्शल लॉ थोपे जाने की चर्चा चल रही है, लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता। हालांकि पाकिस्तान पहले भी ऐसी स्थिति से गुजर चुका है। लेकिन यह 2024 है और अब ऐसा होना असंभव लगता है। लेकिन जैसा कि कई लोग पूछते हैं कि इसका समाधान क्या है, खासकर ऐसे समय में, जब पाकिस्तान की आर्थिक स्थिति बेहद नाजुक है। यदि सर्वोच्च न्यायालय इस तरह के फैसले देता है, तो शहबाज शरीफ सरकार नेशनल असेंबली में अपना दो तिहाई बहुमत खो देगी और वह अल्पमत की सरकार बन जाएगी, जिसका अर्थ यह होगा कि वह संविधान में कोई बदलाव नहीं कर पाएगी। सुरक्षा प्रतिष्ठान भी शहबाज शरीफ सरकार से तंग आ चुका है, जैसा कि इस हफ्ते इंटर सर्विसेज पब्लिक रिलेशन्स (आईएसपीआर) के महानिदेशक लेफ्टिनेंट जनरल अहमद शरीफ चौधरी की प्रेस कॉन्फ्रेंस में स्पष्ट हुआ, जिसने सबको हैरान कर दिया, क्योंकि इसमें राष्ट्रीय सुरक्षा के बजाय राजनीति पर अधिक जोर दिया गया था।

इसके अलावा पिछले कुछ महीनों में खैबर पख्तूनख्वा प्रांत में कई आतंकवादी हमले हुए हैं, जिनमें कई सैनिकों और नागरिकों की मौत हुई है। कई लोगों का मानना है कि सुरक्षा प्रतिष्ठान राजनीतिक जोड़-तोड़ में इतना उलझा हुआ है कि राष्ट्रीय सुरक्षा की गंभीर चुनौतियों से निपटने की उसकी क्षमता बहुत कमजोर हो गई है। यह जनता के बढ़ते संदेह का भी कारण है, जो बन्नू विरोध प्रदर्शनों में दिखा। यह विडंबना है कि पाकिस्तानी सेना को मुल्क की जनता के गुस्से का निशाना बनना पड़ा। राजनीतिक विश्लेषक एवं लेखक जाहिद हुसैन का कहना है, “लेफ्टिनेंट जनरल अहमद शरीफ चौधरी का राजनीतिक दबाव ही सुरक्षा प्रतिष्ठान को और अधिक विवादास्पद बना देगा। सवाल उठता है कि आखिर इस दबाव का उद्देश्य क्या था। ऐसे समय में प्रवक्ता की टिप्पणी के गंभीर राजनीतिक निहितार्थ हैं, जब मुल्क को आतंकवाद के खतरे से निपटने के लिए राजनीतिक तापमान को कम करने की सख्त जरूरत है।”

दरअसल लेफ्टिनेंट जनरल अहमद शरीफ चौधरी ने खैबर पख्तूनख्वा की प्रांतीय सरकार की आलोचना की, जहां कुछ क्षेत्रों से आतंकवादियों को खदेड़ दिए जाने के बावजूद नागरिकों के लिए सही परिस्थितियां नहीं बनाई जा सकी हैं। उन्होंने कहा कि पुनर्निर्माण सेना का काम नहीं है। उन्होंने पिछले वर्ष नौ मई को बगावत में शामिल लोगों के खिलाफ मामले को नहीं बढ़ाने के लिए न्यायपालिका को भी दोष दिया। उन्होंने संघीय सरकार पर डिजिटल आतंकवाद पर नियंत्रण करने में विफल रहने का आरोप लगाया, जिसके चलते सोशल मीडिया पर सेना की तीखी आलोचना की जाती है। हालांकि सरकार ने पहले ही मुल्क में एक्स (ट्विटर) पर प्रतिबंध लगा रखा है। ऐसे में फिलहाल यह अनुमान लगाना कठिन है कि पाकिस्तान में ये सारे मामले अंततः कैसे सुलझेंगे।