भारत में आदिवासियों और मूलनिवासियों का जंगलों से गहरा और पारंपरिक संबंध रहा है, जो सहअस्तित्व के सिद्धांत पर आधारित है। ऐतिहासिक रूप से, वन और वनक्षेत्र आदिवासी जनजातियों के पारंपरिक निवास स्थल थे। हालांकि, जैव-विविधता और वन्यजीव संरक्षण के उद्देश्य से आरक्षित क्षेत्रों की परिकल्पना के साथ इन समुदायों को उनके पारंपरिक निवास स्थानों से विस्थापित किया गया है।

औपनिवेशिक काल में 1865 के भारतीय वन अधिनियम के तहत लागू की गई वन-नीति ने वनक्षेत्र का बड़ा हिस्सा सरकार के अधीन कर दिया, जिससे लाखों वन-निवासियों के पारंपरिक अधिकार समाप्त हो गए। स्वतंत्रता के बाद भी आरक्षित क्षेत्रों के निर्माण के लिए नियमों की अनदेखी जारी रही। भारतीय वन अधिनियम-1927 के तहत आरक्षित वन घोषित करने की जटिल प्रक्रिया है, लेकिन सरकारों द्वारा इसे प्रभावी रूप से लागू नहीं किया गया।

विभिन्न कानूनी प्रावधानों और संशोधनों के बावजूद, वन-निवासियों के अधिकारों को पूरी तरह से मान्यता नहीं मिली है। वनाधिकार कानून, 2006 के तहत वन-निवासियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने की कोशिश की गई है, लेकिन इसके प्रभावी क्रियान्वयन में कई चुनौतियां बनी हुई हैं। उदाहरण के लिए, वन्यजीव संरक्षण अधिनियम-1972 की धारा-36(क) के तहत राज्य सरकार को स्थानीय समुदाय के साथ चर्चा करने के बाद ही अभयारण्य और राष्ट्रीय उद्यान के नजदीकी क्षेत्रों को संरक्षित या आरक्षित घोषित करने की अनुमति है, लेकिन इस प्रक्रिया का पालन अक्सर नहीं किया जाता।

आदिवासी और वन-निवासी समुदायों के पारंपरिक अधिकारों की अनदेखी और उनकी भूमि पर सरकारी योजनाओं के तहत वृक्षारोपण जैसे कार्यक्रम चलाने से उनके जीवन पर गंभीर प्रभाव पड़ता है। आदिवासी समुदायों का बड़े पैमाने पर विस्थापन हो रहा है, जिसका कोई ठोस समाधान अभी तक नहीं निकाला गया है।

संविधान के अनुच्छेद 244 के तहत पांचवीं अनुसूची के प्रावधान आदिवासी क्षेत्रों में राज्यों की कार्यपालन शक्ति को शिथिल करते हैं, और इन क्षेत्रों की प्रशासनिक व्यवस्था में राज्यपाल को सर्वोच्च अधिकार प्राप्त है। बावजूद इसके, अनुसूचित जनजातियों और अन्य परंपरागत वन-निवासियों का जीवन आज भी असुरक्षित है, जिससे सवाल उठता है कि कानून का राज कहां है?

इस स्थिति में, यह आवश्यक है कि सरकार और संबंधित संस्थाएं संवैधानिक और कानूनी प्रावधानों का पूरी तरह से पालन करें और वन-निवासियों के अधिकारों की रक्षा करें। उनके पारंपरिक निवास स्थानों को संरक्षित करते हुए, उन्हें आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा प्रदान की जानी चाहिए, ताकि वे सुरक्षित और सम्मानजनक जीवन जी सकें।