नवीन जोशी
24 जून से शुरू हुआ संसद का विशेष सत्र 3 जुलाई को अनिश्चित काल के लिए स्थगित हो गया। लेकिन अपने पीछे लोकतंत्र और संविधान के कुछ जरूरी सवाल छोड़ गया है, जिन पर राजनैतिक दलों के साथ-साथ जनता ने अभी मंथन नहीं किया और फिजूल के मुद्दों में उलझी रही तो इसका दीर्घकालिक नुकसान हो सकता है।
मंगलवार को लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने अपने भाषण में वर्तमान हालात पर अपने विचारों को रखने की जगह वे 10 साल के अपने शासनकाल का जिक्र करते रहे और उनके निशाने पर हमेशा की तरह कांग्रेस और गांधी परिवार रहा। अपने भाषण में जिस तरह नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी के लिए श्री मोदी ने अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया, उसकी भर्त्सना की जा रही है। हालांकि भाजपा में उनके कई समर्थक ‘बालकबुद्धि’ जैसे शब्दों के साथ अब भी विपक्ष पर हमलावर हैं। इससे समझ आता है कि पिछले एक दशक से राहुल गांधी की छवि खराब करने का जो खेल दक्षिणपंथियों ने शुरू किया है, उस पर अब भी कोई रोक लगने नहीं वाली है।
बहरहाल, लोकसभा के बाद बुधवार को प्रधानमंत्री राज्यसभा में धन्यवाद प्रस्ताव पर भाषण देने आए और यहां भी उनके निशाने पर विपक्ष, कांग्रेस और गांधी परिवार ही रहा। देश की मौजूदा समस्याओं पर गंभीर और सार्थक चर्चा करने की बजाय श्री मोदी 50 साल पुराने आपातकाल को लेकर कांग्रेस की निंदा कर रहे थे और यह बता रहे थे कि कांग्रेस ने संविधान निर्माता बाबा अंबेडकर और उनके बनाए संविधान का किस तरह अपमान किया है। जबकि उनके शासनकाल में किस तरह संविधान को महत्व दिया जा रहा है। श्री मोदी की इन बातों पर जब नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने अपना पक्ष रखना चाहा, तो सभापति ने इसकी अनुमति उन्हें नहीं दी।
जब राज्यसभा में विपक्ष को यह मौका नहीं मिला तो श्री खड़गे के नेतृत्व में समूचे विपक्ष ने वॉकआउट किया। श्री मोदी ने इस पर विपक्ष पर एक और आरोप लगा दिया कि वे सच से भाग रहे हैं। शायर ने कहा है- “वही कातिल वही शाहिद वही मुंसिफ ठहरे। अकरबा मेरे करें कत्ल का दावा किस पर।” विपक्ष पर एकतरफा इल्जाम लगाकर उसे संविधान विरोधी कहना और फिर अपने पक्ष में बात भी न रखने देना, यही बताता है कि सरकार की मंशा विपक्ष को केवल कटघरे में खड़ा करने की है, संविधान को लेकर गंभीर विमर्श की नहीं।
राज्यसभा सभापति जगदीप धनखड़ ने भी विपक्ष के बहिर्गमन पर कहा कि आज उन्होंने मुझे पीठ नहीं दिखाई, उन्होंने भारत के संविधान को पीठ दिखाई। उन्होंने मेरा या आपका अपमान नहीं किया, उन्होंने उस संविधान की शपथ का अपमान किया जो उन्होंने ली थी। अब सवाल ये है कि क्या संसद में अपनी बात रखने की मांग करना संविधान विरोधी आचरण है या उस मांग को पूरा न करना संविधान विरोधी है।
संविधान की प्रतिष्ठा तो तब भी दांव पर लगी थी जब माननीय राष्ट्रपति महोदया ने प्रधानमंत्री मोदी को तीसरे कार्यकाल के लिए चुने जाने पर अपने हाथों से दही-चीनी खिलाई थी। अगर श्री मोदी को संवैधानिक मर्यादाओं का ख्याल होता तो वे इसके लिए स्वयं इंकार कर सकते थे। संविधान की प्रतिष्ठा तब भी दांव पर लगी थी जब लोकसभा में अध्यक्ष ओम बिड़ला श्री मोदी को झुक कर नमस्कार कर रहे थे या राज्यसभा सभापति खुद को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का एकलव्य बता रहे थे। संविधान की रक्षा मणिपुर से लेकर नीट परीक्षा में धांधली के पीड़ितों को न्याय दिलाकर की जा सकती है और इसकी ताकत पूरी तरह से सरकार के पास ही है।
लेकिन पिछले कार्यकाल की तरह संसद में इस बार भी विपक्ष को न्याय के लिए नारे लगाने पड़े और सरकार ने उन नारों की लगातार उपेक्षा की। लोकसभा में मणिपुर के नारों पर प्रधानमंत्री ने कोई जवाब नहीं दिया और राज्यसभा में इस मसले पर बताया कि उनकी सरकार मणिपुर में शांति बहाली के लिए क्या प्रयास कर रही है। अब तक कितने हजार एफआईआर दर्ज हो चुकी हैं, कितने हजार लोगों को गिरफ्तार किया गया है। अपनी विफलता को छिपाने के लिए श्री मोदी ने यह जिक्र भी कर दिया कि कांग्रेस ने किस तरह अपने शासन में मणिपुर में राष्ट्रपति शासन लगाया था। इस तरह के जवाब देने से समझ आता है कि असल मुद्दों से ध्यान भटकाने की कोशिश में सरकार लगी हुई है।
श्री मोदी अगर मणिपुर में किए जा रहे अपने प्रयासों को सही ठहराना चाहते हैं तो फिर उन्हें यह भी बताना चाहिए कि अब तक उन्होंने एक बार भी मणिपुर जाना जरूरी क्यों नहीं समझा। जब वहां साल भर के बाद भी हालात सुधरे नहीं हैं और कुकी-मैतेई समुदायों के बीच संघर्ष बना हुआ है, तो देश का प्रधानसेवक होने के नाते वे मणिपुर जाकर लोगों से सीधे बात करने की पहल क्यों नहीं करते। क्या पता इस पहल से बिगड़े हालात संभालने में मदद मिल जाए और वहां के लोग अपने ही देश में अजनबी न महसूस करें।
अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टॉलरेंस वाली नीति का जिक्र करते हुए जांच एजेंसियों का भी जिक्र किया और उनके शब्द थे कि “मैं बिना लाग-लपेट के कह रहा हूं, हमने एजेंसियों को भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए खुली छूट दे रखी है।” बात कहने का यह लहजा ही अपने आप में काफी असंवैधानिक प्रतीत होता है। जांच एजेंसियों को न किसी तरह की छूट की आवश्यकता है, न पाबंदी की। उन्हें केवल संवैधानिक दायित्वों का पालन करने के लिए नियमों के हिसाब से चलने की आवश्यकता है। जांच एजेंसियों के निदेशक यह सुनिश्चित करें कि वे किसी भी मामले की जांच नियमों के हिसाब से करेंगे और राजनैतिक दबाव में बिल्कुल नहीं आएंगे, तभी सही मायनों में भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाइयां हो पाएंगी।
अन्यथा पिछले दस सालों में यह बात बार-बार जाहिर हुई है कि विरोधी दलों के कई नेताओं पर ईडी या सीबीआई की जांच शुरू होने के बाद अगर वे भाजपा में शामिल हो जाते हैं तो फिर उन पर जांच बंद हो जाती है।