संस्कारहीनता के घातक दुष्परिणाम पर गंभीरता से विचार किया जाना आवश्यक है। 2012 के निर्भया कांड के बाद समाज में एक बड़ी बहस छिड़ी, जिससे कानून में सुधार की दिशा में कई कदम उठाए गए। जस्टिस वर्मा समिति के सुझावों पर अमल हुआ, लेकिन समस्या की जड़ में न उतरने के कारण महिलाओं पर होने वाले अपराधों में कोई खास कमी नहीं आई। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े भी यह दर्शाते हैं कि महिला संबंधी अपराध लगातार बढ़ते जा रहे हैं।
समाज का मध्य वर्ग, जो किसी भी देश की शक्ति होता है, आजकल अपनी जिम्मेदारियों से मुंह मोड़ रहा है। शान-शौकत और भोग-विलास में डूबा यह वर्ग अपने बच्चों की परवरिश को महज अच्छे स्कूलों और महंगे गैजेट्स तक सीमित कर रहा है। यह वर्ग मानता है कि महंगी शिक्षा देने से उनका कर्तव्य पूरा हो जाता है, जबकि बच्चों के नैतिक और सांस्कृतिक विकास की अनदेखी की जा रही है।
मोबाइल और लैपटॉप जैसे उपकरणों पर अत्यधिक निर्भरता से बच्चों में नैतिक मूल्यों की कमी बढ़ रही है। पढ़ाई के मामले में भी स्थिति गंभीर है, क्योंकि अध्यापकों का स्तर भी अक्सर अपेक्षित नहीं होता। नेशनल सैंपल सर्वे ऑर्गेनाइजेशन के अनुसार, एक-तिहाई अध्यापकों में पढ़ाने की योग्यता की कमी पाई गई है। इसके परिणामस्वरूप, बच्चे कोचिंग और निजी प्रयासों से ही आगे बढ़ पाते हैं, लेकिन नैतिक विकास और समाज सेवा की भावना का अभाव बना रहता है।
स्कूलों की हालत भी फैक्ट्री जैसी हो गई है, जहां केवल रटाकर बच्चों को अच्छे अंक लाने पर जोर दिया जाता है, जबकि उनके व्यक्तित्व विकास और समाज सेवा की भावना पर कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है। ऐसे में यह जरूरी हो जाता है कि संस्कार और नैतिक शिक्षा पर भी विशेष ध्यान दिया जाए ताकि आने वाली पीढ़ियां नैतिक और सांस्कृतिक रूप से सुदृढ़ बन सकें।