120 से अधिक लोग भगदड़ में मर गए। उप्र के हाथरस में जिस सत्संग स्थल पर यह भगदड़ मची, वहां अब तंबू उखाड़ा जा चुका है। इधर-उधर बिखरी हुई चप्पलें, कपड़ों के टुकड़े, धूल-मिट्टी, एंबुलेंसों की आवाजाही, मुर्दाघर के बाहर बर्फ की सिल्लियों का ढेर, थोक के भाव में पड़ी इंसानी लाशें, अपने लोगों के मृत शरीरों की पहचान के लिए भटकते जिंदा लोग, साधनों के अभाव में कंधों पर ढो कर ले जाए जा रहे शव, ये नजारा मंगलवार से लेकर बुधवार तक दिखाई देता रहा। इस बीच संसद सत्र अपनी गति से चल रहा था। प्रधानमंत्री को लोकसभा के बाद राज्यसभा में भी विपक्ष की खबर लेनी थी। जब तक वे पूरी तरह से राहुल गांधी को बालकबुद्धि और समूचे विपक्ष को देशविरोधी, नाकारा, नाकाम, संविधान विरोधी, लोकतंत्र विरोधी, हिंदुत्व विरोधी, विकास विरोधी साबित न कर दें। जब तक प्रधानमंत्री यह साबित न कर दें कि चार सौ पार के नारे के फेल हो जाने के बाद भी उनके गैरलोकतांत्रिक आचरण में कोई कमी नहीं आई है और वे सत्ता के पांच साल तीसरी बार मिलने के बाद अब और 20 सालों के शासन की बात करने लगे हैं, तब तक वे अपनी चर्चा को कैसे रोक सकते थे।
यह तो गनीमत थी कि मंगलवार को जब वे लोकसभा में दो घंटे से ज्यादा का भाषण दे रहे थे, उसी दौरान हाथरस हादसे की खबर आ गई थी, तब उन्होंने भाषण के बीच में इस हादसे पर दुख व्यक्त कर दिया था। भाषण तो वे रोक नहीं सकते थे, क्योंकि तब राहुल गांधी से हिसाब-किताब अधूरा रह जाता। हाथरस के पीड़ितों को इस मामले में प्रधानमंत्री का आभार मानना चाहिए कि श्री मोदी की मौखिक संवेदना हादसे के कुछ घंटों बाद ही उन्हें मिल गई। वर्ना पुलवामा के शहीदों और उनके परिजनों को तो काफी इंतजार करना पड़ा था। तब नरेंद्र मोदी मैन वर्सेस वाइल्ड की शूटिंग में व्यस्त थे। इसके लिए उन्हें जिम कार्बेट नेशनल पार्क में रहना पड़ा था।
हालांकि इस समय हिंदुस्तान में जहां नजर दौड़ाएं मैन वर्सेस वाइल्ड की होड़ ही दिखाई देगी, इसके लिए किसी नेशनल पार्क में जाने की जरूरत भी नहीं है। और यह भी जरूरी नहीं कि आदमी का मुकाबला जंगली जानवरों से ही हो। क्योंकि जानवर जंगल में रहे या शहर में, वो विकास के आडंबर में नहीं पड़ा और प्रकृति के नियमों से बंध कर ही काम करता है। असल में इस समय इंसान का मुकाबला इंसानों के बीच पनप चुके हैवानों से है। कमाल यह है कि हैवान खुद को इंसान की तरह दिखाते हैं, और दार्शनिक इसे जिंदगी की जद्दोजहद की तरह पेश करते हैं। इंसानों की हैवानों से लड़ाई को जीवन का संघर्ष बताते हैं और प्रवचन करके इस संघर्ष से लड़ने के नुस्खे सिखाते हैं।
हाथरस में दो जुलाई को स्वयंभू बाबा नारायण साकार विश्वहरि उर्फ भोलेबाबा के सत्संग में करीब सवा लाख श्रद्धालु, जिनमें अधिकतर महिलाएं थीं, जीवन संघर्ष के नुस्खों को ही शायद सीखने गई थीं। नेशनल हाईवे 43 से चार किलोमीटर दूर जिस फुलराई गांव में सत्संग स्थल बनाया गया था, वहां दिन में बारिश के कारण मिट्टी गीली थी, फिसलन थी और बेहद उमस भरा मौसम था। सत्संग में पहले ही अनुमान से अधिक लोग पहुंचे थे और जाहिर है आयोजकों के पास इस भीड़ को संभालने का कोई प्रबंधन तंत्र नहीं था। सब कुछ शायद भगवान भरोसे या प्रवचन देने वाले भोलेबाबा के भरोसे था। जब सत्संग खत्म हुआ तो नारायण साकार के पैर छूने और जिस मिट्टी पर यह स्वघोषित बाबा चला था, उसे उठाने के लिए भीड़ उमड़ने लगी। नारायण साकार के निकलने के लिए अलग से रास्ता बना हुआ था, क्योंकि उसके सत्संग कराने वाले आयोजक भी इस बात को समझते हैं कि कोई कितना भी खुद को भगवान या भगवान का दूत क्यों न बता दे, जब मुसीबत आएगी तो वो हवा में उड़कर कहीं नहीं जा पाएगा, उसे भी बचने का रास्ता ढूंढना ही पड़ेगा। इसलिए भीड़ बढ़ती देख कर नारायण साकार अलग से बनाए रास्ते से निकल कर अपने वाहन में सवार होकर चला गया।
पीछे रह गए हजारों लोग, जो अपनी मुसीबतों को दूर करने के लिए मिट्टी उठाने की कोशिश में लग गए और आखिर में मिट्टी में ही मिल गए। जो प्रधानमंत्री खुद को परमात्मा का अंश बता चुके हैं, और राष्ट्रपति के अभिभाषण को संसद में प्रवचन बोल चुके हैं, वो अब ये कह सकते हैं कि मिट्टी के पुतले को तो मिट्टी में ही मिल जाना होता है। उनके स्क्रिप्ट लेखक चाहें तो इसमें कबीर दास जी का दोहा भी फिट कर सकते हैं कि- “पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात। एक दिना छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात।” क्षणभंगुर देह के लिए आखिर क्यों परेशान होना और कब तक इसका शोक मनाना।
वैसे भी जिस देश में 140 करोड़ लोग रहते हैं, उसमें भी 80 लाख लोगों के लिए लगातार हर महीने पांच किलो राशन का प्रबंध करना पड़ता है। इससे पहले से खाली सरकारी खजाने पर बोझ बढ़ता है। इस बोझ को कम करने के लिए सरकार को सार्वजनिक संपत्तियों को औने-पौने दाम में उद्योगपतियों को बेचना पड़ता है। ताकि वो अमीर हों और दुनिया में यह संदेश जाए कि भारत में इतने अरबपति हैं और इस तरह भारत का नाम पांच विकसित अर्थव्यवस्थाओं में आए। इससे भारतीयों में गर्व का बोध होगा कि हम दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में एक हैं। अपने तीसरे कार्यकाल में नरेंद्र मोदी भारत को और भी बड़ी अर्थव्यवस्था बनाना चाहते हैं। कितना कुछ करना है अभी उन्हें।
इसलिए सौ-सवा सौ लोगों ने भगदड़ में अपनी जान गंवाकर एक तरह से सरकार पर एहसान ही किया है। इनमें न जाने कितने लोगों को मुफ्त राशन मिलता होगा, कितनों का आयुष्मान कार्ड होगा, कितनों को सब्सिडी वाले गैस सिलेंडर मिलते होंगे, अब सवा सौ लोगों के मरने से सरकार का खर्च कुछ कम हो जाएगा। मोदी सरकार तो बताती ही है कि वो जब से सत्ता में आई है, करोड़ों लोगों के लिए दिन-रात काम करती है। ये और बात है कि इसके बाद भी देश से न गरीबी दूर हो रही है, न गरीबों के दुख दर्द।
ऐसे में शहरों-कस्बों में कुकुरमुत्तों की तरह उग आए सत्संगी बाबाओं की जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं कि वे लोगों को अच्छे दिनों के आने का अहसास कराते रहें। बाकी रही भगदड़ जैसे हादसों या आश्रमों में होने वाले अपराधों की बात, तो यह सब सत्ता के साइड इफेक्ट की तरह चलेंगे ही। सरकारें जानती हैं कि जहां आस्था की बात आती है, वहां न लोगों की तर्कशक्ति काम करती है, न स्मरण शक्ति।
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने राज्यसभा में हाथरस मामले को लेकर अंधश्रद्धा कानून बनाने की मांग की है। लेकिन उनकी मांग पूरी हो पाएगी, इसमें संदेह है। अगर ऐसा हुआ तो फिर कभी चश्मा लगाकर, कभी दसियों कैमरों के बीच एकांत वाला ध्यान करने के नाटक पर भी रोक लग जाएगी और न ही कोई ये दावा कर पाएगा कि वह जैविक तौर पर पैदा न होकर परमात्मा की शक्ति से चलता है। सरकार जनता की कमजोर नब्ज पहचानती है कि वह अब रोजगार से लेकर बीमारी के इलाज तक अपनी सारी परेशानियों के समाधान के लिए सरकार से कोई उम्मीद नहीं रखती, बल्कि बाबाओं के पास जाकर उनके ताबीज या उनके पैरों की मिट्टी या कानों में उनके द्वारा फूंका गया मंत्र उसे जिंदा रहने का हौसला देता है।
सरकार रोजगार, शिक्षा, जीवन स्तर बढ़ाने जैसे अपने दायित्वों को पूरा करती, तो फिर सत्संग स्थलों पर ताला लग जाता। बाबाओं का आलीशान बंगलों में रहना और महंगी गाड़ियों में घूमना बंद हो जाता। काले धन का सफेद में बदलना बंद हो जाता। इससे समाज के शक्ति संपन्न लोगों का इकोसिस्टम बिगड़ जाता। समाज में धन, संपत्ति, सत्ता और राजनीति के इकोसिस्टम का बने रहना गरीबों की जिंदगी से ज्यादा महत्वपूर्ण है।
इसलिए हाथरस मामले की जांच के आदेश और उसके लिए समिति गठित होने के बावजूद इस मुगालते में बिल्कुल नहीं रहना चाहिए कि आगे ऐसे हादसों पर रोक लग जाएगी। जनता को अपनी जान प्यारी है, तो वह ऐसे आयोजनों से दूर रहे, यही एकमात्र उपाय है। आसाराम, गुरमीत राम रहीम जैसे लोगों को जेल से अगर जनता ने कुछ नहीं समझा तो वो ये भी याद रखे कि जिस नारायण साकार के सत
संग में यह हादसा हुआ है, वो इस समय फरार है। उसके सफेद कपड़ों पर न कोई खून लगा है, न मिट्टी, न सवा सौ लोगों की मौत की कालिख!
दरअसल, यह हादसा और इसके बाद की स्थिति हमारे समाज और राजनीति की उस हकीकत को उजागर करती है, जिसे हम अकसर अनदेखा कर देते हैं। जब तक समाज की बुनियादी समस्याओं का समाधान नहीं होगा और जनता को न्याय, रोजगार, और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं मिलेंगी, तब तक ऐसे हादसे होते रहेंगे। सत्संग जैसे आयोजनों में भाग लेने वाले लोग अक्सर अपने जीवन की समस्याओं का समाधान खोजने आते हैं, लेकिन व्यवस्था की लापरवाही और अव्यवस्था की वजह से वे हादसों का शिकार हो जाते हैं।
सरकार की प्राथमिकता अगर जनता की समस्याओं का समाधान होती, तो इन सत्संग स्थलों पर लाखों लोग जमा नहीं होते। यह घटना बताती है कि हमें अपनी प्राथमिकताओं पर ध्यान देना होगा और जनता की वास्तविक जरूरतों को समझना होगा। हमें इस तरह के हादसों से सबक लेना चाहिए और सुनिश्चित करना चाहिए कि भविष्य में ऐसी घटनाएं न हों।
आखिर में, हमें यह याद रखना चाहिए कि इंसानियत और हैवानियत के बीच की इस होड़ में हमें इंसानियत को जीताना होगा। हमें अपने समाज को इस तरह से बनाना होगा कि हर व्यक्ति को न्याय, सुरक्षा, और सम्मान मिल सके। यही सच्ची इंसानियत होगी।