राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) दुनिया का सबसे बड़ा संगठन है। आरएसएस का उद्देश्य है हिंदू राष्ट्र की स्थापना। उसका दावा है कि वह एक सांस्कृतिक संस्था है। हमारे देश के संविधान का आधार है भारतीय राष्ट्रवाद, मगर आरएसएस हिंदू राष्ट्रवाद की बात करता है और हिंदुओं को एक अलग राष्ट्र मानता है। समय-समय पर भाजपा के शीर्ष नेता यह मांग करते रहे हैं कि भारतीय संविधान को सिरे से बदलकर भारत को हिंदू राष्ट्र घोषित किया जाए। यही बात आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालक के. सुदर्शन ने सन् 2000 में अपना पद संभालने के तुरंत बाद कही थी।

आरएसएस और भाजपा का रिश्ता

सन् 2024 के लोकसभा चुनाव के प्रचार के दौरान भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने कहा था कि अब भाजपा पहले से अधिक काबिल बन गई है और अब उसे चुनाव जीतने के लिए आरएसएस की मदद की जरूरत नहीं है। भाजपा एक राजनैतिक दल है और उसके गठन में आरएसएस की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इससे साफ है कि संघ के राजनीति और भाजपा से नजदीकी रिश्ते हैं। हिंदू महासभा के श्यामाप्रसाद मुखर्जी ने आरएसएस के साथ मिलकर भाजपा के पूर्व अवतार जनसंघ का गठन किया था। उस समय आरएसएस के मुखिया एम.एस. गोलवलकर (गुरूजी) थे, जो आरएसएस के प्रमुख चिंतकों में से एक माने जाते हैं।

गोलवलकर का दृष्टिकोण

गोलवलकर ने कई मौकों पर जनसंघ और भाजपा में काम कर रहे संघ के स्वयंसेवकों और प्रचारकों की भूमिका की चर्चा की है। गोलवलकर लिखते हैं, “उदाहरण के लिए हमारे कुछ मित्रों से कहा गया कि जाइये, राजनीति में काम कीजिये। इसका कारण यह नहीं है कि वे राजनीति में बहुत रूचि रखते हैं या राजनीति से प्रभावित हैं। वे राजनीति के बिना उस तरह नहीं तड़पेंगे जैसे पानी के बिना मछली तड़पती है। अगर उनसे राजनीति छोड़ देने के लिए कहा जाएगा तो भी उन्हें कोई आपत्ति नहीं होगी। उनके अपने विचार का कोई महत्व नहीं है” (गोलवलकर, एमएस, “श्रीगुरूजी समग्र दर्शन”, भारतीय विचार साधना, नागपुर, खंड 3 पृष्ठ 318)। इससे यह साफ है कि भाजपा और जनसंघ से यह अपेक्षा की जाती थी और है कि वे आरएसएस के निर्देशों का पालन करें।

आरएसएस का प्रभाव

आरएसएस ने बड़ी संख्या में अपनी सोच में ढले स्वयंसेवकों को प्रशिक्षित और तैयार किया। उसके बाद उसने कई अलग-अलग संगठन स्थापित किए। महात्मा गांधी का हत्यारा नाथूराम गोडसे भी संघ का प्रशिक्षित प्रचारक था। उस समय आरएसएस अपने सदस्यों का कोई रिकार्ड नहीं रखता था और इसलिए संघ, गांधीजी की हत्या में सीधे संलिप्त होने के आरोप से बच गया। नाथूराम गोडसे के परिवार का मानना है कि आरएसएस के इस कट्टर सदस्य को न तो कभी आरएसएस से निष्कासित गया और न उसने आरएसएस को छोड़ा।

आरएसएस के संगठन

हिंदू राष्ट्रवाद के जाने माने अध्येता शम्सुल इस्लाम लिखते हैं, “आरएसएस के केन्द्रीय प्रकाशन (सुरुचि प्रकाशन, झंडेवालान, नयी दिल्ली) द्वारा प्रकाशित “परम वैभव के पथ पर” (1997) में आरएसएस द्वारा अलग-अलग क्षेत्रों के लिए गठित 40 से अधिक संगठनों की सूची दी गई है। भाजपा इस सूची में तीसरे नंबर पर है और उसे संघ का राजनैतिक संगठन बताया गया है। सूची में जो अन्य प्रमुख संगठन शामिल हैं उनमें से कुछ हैं अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, हिंदू जागरण मंच, विश्व हिंदू परिषद, स्वदेशी जागरण मंच और संस्कार भारती।

आरएसएस की प्रार्थना और शपथ

आरएसएस की आधिकारिक प्रार्थना और शपथ से यह साफ है कि उसके अनुयायी हिंदू राष्ट्र के निर्माण के प्रति प्रतिबद्ध हैं। संघ की प्रार्थना यह है, “हे सर्वशक्तिशाली परमश्वर! हम हिन्दू राष्ट्र के अंगभूत तुझे आदर सहित प्रणाम करते हैं। तेरे ही कार्य के लिए हमने अपनी कमर कसी है। उसकी पूर्ति के लिए हमें अपना शुभाशीर्वाद दे” (आरएसएस शाखा दर्शिका, ज्ञान गंगा, जयपुर, 1997, पृष्ठ 1)। इसी तरह संघ की शपथ भी एकदम स्पष्ट है, “मैं मेरे पवित्र हिंदू धर्म, हिंदू समाज और हिंदू संस्कृति की प्रगति को पुष्ट कर भारतवर्ष का समग्र गौरव स्थापित करने के लिए संघ का सदस्य बना हूँ।”

सरकारी कर्मचारियों पर प्रतिबंध

आरएसएस ने सांस्कृतिक संगठन का लबादा ओढ़े रखा है, जिससे उसे बहुत से लाभ हैं। जैसे वह सभी राजनैतिक विचारधाराओं के लोगों को आकर्षित कर सकता है। लेकिन हमारे स्वाधीनता संग्राम के सभी बड़े नेता संघ के असली चरित्र को अच्छी तरह से जानते-समझते थे। गांधीजी संघ को एक साम्प्रदायिक एवं एकाधिकारवादी सोच वाला संगठन मानते थे (प्यारेलाल, “महात्मा गांधी: द लास्ट फेज”, अहमदाबाद, पृष्ठ 440)। नेहरू का मानना था कि आरएसएस में फासीवाद के कई लक्षण हैं। देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था, “आरएसएस अपने संगठन की संपर्ण जानकारी गुप्त रखता है। उसका विकास फासीवादी तरीके से हुआ है और वह निश्चित रूप से लोक शांति के लिए संभावित खतरा है” (डॉ. राजेंद्र प्रसाद द्वारा सरदार वल्लभ भाई पटेल को लिखा पत्र, 12 दिसंबर 1948)। सरदार पटेल के अनुसार, “जहां तक गांधीजी की हत्या में आरएसएस और हिंदू महासभा की भागीदारी की बात है…हमारी रपटें पुष्टि करती हैं कि इन दोनों संगठनों, और विशेषकर दोनों में से पहले, की गतिविधियों से देश में ऐसा वातावरण बना जिसके कारण ऐसी भयावह त्रासदी संभव हो सकी…आरएसएस की गतिविधियां सरकार और राज्य के अस्तित्व के लिए स्पष्ट खतरा हैं।”

आरएसएस पर प्रतिबंध

हम सबको पता है कि आरएसएस पर तीन बार प्रतिबंध लगाया जा चुका है और तीनों बार सांस्कृतिक संगठन का मुखौटा पहनकर वह प्रतिबंध को हटवाने में सफल रहा है। शासकीय कर्मियों के राजनीति में भाग लेने पर प्रतिबंध इसलिए लगाया जाता है ताकि वे संविधान के मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध रहें और अपने काम में राजनैतिक पक्षपात न करें। शासकीय कर्मचारियों के आरएसएस की गतिविधियों में भाग लेने पर प्रतिबंध पिछले 50 से भी अधिक सालों से लगा हुआ है। इस बीच जनता पार्टी और अटल बिहारी वाजपेयी की सरकारें भी सत्ता में रहीं मगर यह प्रतिबंध नहीं हटाया गया। श्री मोदी पिछले 10 साल से सत्ता में हैं। उन्होंने यह निर्णय अब क्यों लिया? क्या इसलिए क्योंकि आरएसएस मुखिया मोहन भागवत ने परोक्ष रूप से सर्वोच्च नेता पर हमला किया है?

यह मुद्दा महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सवाल उठता है कि क्या सरकारी कर्मचारियों को आरएसएस का सदस्य बनने की इजाजत मिलनी चाहिए। इसका जवाब हमें संविधान के मूल्यों और सरकारी कर्मचारियों की निष्पक्षता के महत्व को ध्यान में रखते हुए ढूंढना होगा।