बाबा साहेब और कांग्रेस: हिन्दू कोड बिल को लेकर नेहरू सरकार से अलग हुए थे अम्बेडकर
राज्यसभा और लोकसभा में बीते दिनों संविधान निर्माता बाबासाहेब आंबेडकर को लेकर हुई चर्चा के बाद कई सवाल उठे हैं। खासकर आंबेडकर के नेहरू कैबिनेट छोड़ने का मुद्दा इस समय गरमाया हुआ है। आइए इस लेख में इसी के बारे में विस्तार से जानते हैं।
संविधान पर बहस हो और बाबा साहेब अम्बेडकर का जिक्र न हो, ऐसा संभव नहीं है। हाल ही में संसद के दोनों सदनों में संविधान पर काफी बहस हुई तो डॉ. अम्बेडकर का नाम आना स्वाभाविक ही था। चर्चा के दौरान स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और फिर गृहमंत्री अमित शाह द्वारा डॉ. अम्बेडकर और कांग्रेस तथा खासकर जवाहर लाल नेहरू के बीच संबंधों का मामला जोरदार ढंग से उठाया गया। दोनों सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेताओं की बात वास्तव में काफी हद तक सही थी।
दरअसल, अगर बाबा साहेब के संबंध कांग्रेस और नेहरू सरकार से अच्छे होते तो वह 1951 में सरकार से इस्तीफा क्यों देते? अगर उनके कांग्रेस से संबंध अच्छे होते तो वह यह पार्टी क्यों छोड़ते? यह भी सच ही था कि संविधान निर्माता ने जब 1952 में उत्तरी बम्बई से अपनी ही पार्टी शेड्यूल कास्ट फेडेरेशन की ओर से आजाद भारत का पहला चुनाव लड़ा तो वह कांग्रेस प्रत्याशी नारायण सदोबा काजरोल्कर से हार गये थे। कांग्रेस प्रत्याशी भी दलित ही थे। लेकिन इस सच्चाई से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि उनके जितने गहरे और बुनियादी मतभेद जनसंघ और आरएसएस से थे उतने कांग्रेस से नहीं थे।
हिन्दू कोड बिल को लेकर दिया इस्तीफा
बाबा साहेब का सचमुच नेहरू सरकार से मोह भंग हो गया था। डॉ. अंबेडकर का नेहरू कैबिनेट से इस्तीफा देने का सबसे बड़ा कारण हिंदू कोड बिल पर असहमति थी। इस बिल का उद्देश्य महिलाओं के लिए सम्पत्ति के अधिकार, विवाह और तलाक संबंधी कानूनों में सुधार लाना था। अंबेडकर समाज में महिलाओं और दलितों के अधिकारों के लिए लगातार संघर्ष कर रहे थे और इस बिल को एक ‘‘सामाजिक क्रांति’’ के रूप में देखा था।
हालांकि, नेहरू को इस बिल का समर्थन था, लेकिन उनके अपने वरिष्ठतम सहयोगी सरदार पटेल, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और के.एम. मुंशी आदि इस बिल के पक्ष में नहीं थे, इसलिए नेहरू इसे संसद में तत्काल पास कराने के पक्ष में नहीं थे। वैसे भी यह एक संवेदनशील सामाजिक और धार्मिक मुद्दा था और उन्हें हिंदू समाज में विद्यमान परंपराओं और प्रथाओं के खिलाफ सीधी चुनौती का डर था।
इसके अलावा नेहरू इसे धीरे-धीरे लागू करने के पक्षधर थे, ताकि समाज इसे स्वीकार सके। आखिर हुआ भी यही हिन्दू कोड बिल 1955 और 1956 में चार खण्डों में पारित कराया गया। अंबेडकर का यह मानना था कि हिंदू कोड बिल में सुधारों को जल्द और प्रभावी रूप से लागू किया जाना चाहिए। जबकि नेहरू सरकार इस पर ढीले रुख अपनाए हुए थी। इसके चलते उनके बीच असहमति बढ़ी। जब अंबेडकर को यह महसूस हुआ कि नेहरू और उनकी सरकार इस बिल को लागू करने में संजीदा नहीं हैं, तो उन्होंने 1951 में अपने मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया।
समाजवादी दृष्टिकोण और राजनीतिक असहमतियां
ऐतिहासिक विवरण बताते हैं कि कैबिनेट में रहते हुए अंबेडकर और नेहरू के बीच का तनाव बढ़ता गया, खासकर सामाजिक सुधारों और कानूनी बदलावों को लेकर। अंबेडकर ने महसूस किया कि उनका काम और उनकी नीतियों को पर्याप्त समर्थन नहीं मिल रहा था। इससे उनका विश्वास कमजोर हो गया कि वे कैबिनेट के भीतर अपने एजेंडे को प्रभावी रूप से लागू कर सकते हैं। स्वयं दलित होने का अभिशाप झेल चुके अंबेडकर का दृष्टिकोण राजनीतिक और सामाजिक सुधारों के प्रति बहुत कट्टर था।
वे मानते थे कि हिन्दू धर्म और हिन्दू समाज में सुधार की तत्काल आवश्यकता है, खासकर दलितों और महिलाओं के अधिकारों के क्षेत्र में। जबकि नेहरू की नीति अधिक उदारवादी और प्रगतिशील थी। वह धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को लेकर ज्यादा सतर्क थे। अंबेडकर का यह विश्वास था कि सरकार समाज में सुधारों को लागू करने के मामले में पर्याप्त प्रयास नहीं कर पाई थी, जो उनके दृष्टिकोण से जरूरी था।
डॉ. अंबेडकर का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ शुरू से जटिल और विवादित रिश्ता था। उनका जीवन कांग्रेस के साथ कई मोड़ों पर जुड़ा और अलग हुआ। अंबेडकर का भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ संबंध शुरू में सहयोगात्मक था, लेकिन समय के साथ उनके विचारों में असहमति बढ़ती गई। उन्होंने कांग्रेस की नीतियों को दलितों और पिछड़े वर्गों के लिए उपेक्षापूर्ण समझा और अंततः कांग्रेस से अलग होकर अपने लिए एक स्वतंत्र मार्ग चुना।
अंबेडकर ने यह महसूस किया कि कांग्रेस की प्राथमिकताएँ दलितों और समाज के निचले वर्गों के लिए पर्याप्त नहीं थीं। प्रारंभ में अंबेडकर का कांग्रेस के साथ संबंध सकारात्मक था। 1919 में जब रियासतों और विभिन्न जातियों के बीच समानता की बात उठाई जा रही थी तो अंबेडकर ने कांग्रेस के साथ मिलकर एक संयुक्त मोर्चा बनाने की कोशिश की थी।
हालांकि, उनका मुख्य फोकस सामाजिक न्याय और दलितों के अधिकारों की रक्षा पर था और कांग्रेस का ध्यान स्वाधीनता पर केन्द्रित था। अंबेडकर को लगता था कि कांग्रेस मुख्य रूप से उच्च जातियों और हिन्दू समाज के हितों की रक्षा कर रही है, और दलितों के मुद्दों पर ध्यान नहीं दे रही। उनका मानना था कि कांग्रेस की नीतियाँ हिन्दू धर्म के भीतर सुधार करने की बजाय केवल स्वाधीनता प्राप्ति की ओर केंद्रित थीं।
आरएसएस और जनसंघ से और भी खराब रिश्ते थे
डॉ. अम्बेडकर के राष्ट्रीय सवयं सेवक संघ (आरएसएस) के साथ रिश्ते और भी खराब थे। कांग्रेस और नेहरू मंत्रिमण्डल से अलग होना जिस तरह डॉ. अम्बेडकर और कांग्रेस के नकारात्मक रिश्तों का प्रमाण है उसी तरह उनका हिन्दू धर्म त्याग कर बौद्ध धर्म अपनाना और खुलकर अपने भाषणों और पुस्तकों में हिन्दू धर्म की आलोचना करना उनके आरएसएस और भाजपा की मूल संस्था जनसंघ के साथ कड़ुवे रिश्तों का भी प्रमाण माना जा सकता है। कांग्रेस के प्रति उनकी नाराजगी थी और हिन्दूवादी आरएसएस और जनसंघ के प्रति उनका घोर नकारात्मक रिश्ता रहा।
अंबेडकर ने आरएसएस के विचारों और उद्देश्य की खुलकर आलोचना की। उनका मुख्य आरोप था कि यह संगठन हिन्दू धर्म के जातिवादी ढांचे को बढ़ावा देता है और हिन्दू समाज में सुधार के बजाय उसमें असमानता और भेदभाव को मजबूती प्रदान करता है। उन्होंने हिन्दू राष्ट्र की सोच वालों को भारतीय समाज में वास्तविक सुधार और समानता के लिए खतरे के रूप में देखा।
अंबेडकर के लिए, आरएसएस और इसके विचारों के बावजूद समाज में जातिवाद और भेदभाव का अंत तभी संभव था,