अन्न बर्बाद करने की प्रवृत्ति त्यागने के साथ ही खाद्य सामग्री की संपूर्ण ट्रैकिंग व्यवस्था कायम करनी होगी, ताकि सबको भोजन मिल सके।

विवेक एस अग्रवाल
कहीं देखें तो भोजन की थाली भरी हुई है और समझ नहीं आता कि क्या खाएं, क्या न खाएं। वहीं कुछ ऐसे लोग भी मौजूद हैं, जो बस इस इंतजार में रहते हैं कि कहीं से थाली में कुछ आ जाए। यह समस्या मात्र भारत की नहीं, अपितु संपूर्ण विश्व की है। लेकिन जो सक्षम हैं, उनके लिए यह न चिंता का विषय है, न ही कोई सुधार का। उनका मानना है कि गाज तो सिर्फ अक्षम पर गिरती है। लेकिन जो भोजन की बर्बादी कर रहे हैं, उन्हें यह एहसास भी नहीं है कि वे स्वयं अपने भविष्य को अंधकारमय बना रहे हैं। एक लंबा सफर गुजर गया, जब दुनिया के समस्त राष्ट्रों ने पर्यावरण, सामाजिक और आर्थिक समता एवं सामंजस्य वाले लक्ष्यों को पाने के घोषणापत्र पर हस्ताक्षर किए थे। उन संकल्पों को वर्ष 2030 तक प्राप्त करना है, लेकिन आज भी नियंत्रित एवं निर्मूल की जा सकने वाली खाद्य बर्बादी जैसे विषय पर प्रगति नगण्य है।

वास्तविकता तो यह है कि एक तिहाई कार्बन उत्सर्जन के लिए दोषी खाद्य व्यवस्था नियंत्रित नहीं हो पा रही। तथ्य यह भी है कि खाद्यान्न बर्बादी एवं नुकसान पर नियंत्रण से सतत विकास लक्ष्य दो, आठ, बारह व तेरह एक साथ साधे जा सकते हैं। आम तौर पर कार्बन उत्सर्जन के लिए गाड़ियों एवं परिवहन के अन्य साधनों को दोषी ठहराया जाता है, जो भौतिकतावादी युग में निरंतर बढ़ती जा रही हैं। लेकिन बिगड़ती हुई या यों कहें, छद्म गरिमा से विकृत हो रही भोजन व्यवस्था, जो तात्कालिक रूप से सुधारी जा सकती है, संपूर्ण परिदृश्य से बाहर है। इस विकृति के चलते और बढ़ते स्वरूप से संपूर्ण ब्रह्मांड को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से खतरा पैदा हो रहा है। पश्चिमी एवं विकसित देशों में इस बावत चिंता ज्यादा गहरा रही है और खाद्यान्न के उत्पादन से लेकर उपभोग तक हर कदम पर बर्बादी को रोकने हेतु संगठित प्रयास किए जा रहे हैं।

इन देशों में भोजन करने की पद्धति का विश्लेषण करते हुए ट्रे संस्कृति को हतोत्साहित करने एवं भोजन हेतु छोटी प्लेट के उपयोग को बढ़ावा दिया जा रहा है। इसी क्रम में विभिन्न प्रसंस्कृत एवं अन्य खाद्य सामग्री की पैकेजिंग के आकार और मात्रा को नियंत्रित करने के बाबत भी कदम उठाए जा रहे हैं। भारत में खाद्यान्न एवं भोजन दान की परंपरा आदिकाल से रही है एवं सनातन धर्म में इसे पुण्य कमाने का सबसे उत्तम साधन माना गया है। किंतु भोजन दान की प्रक्रिया में यह भी आकलन नहीं हो पाता कि किस व्यक्ति या वर्ग की क्या आवश्यकताएं हैं।

परिणामस्वरूप दान औचित्यहीन हो जाता है। इस परिदृश्य के दृष्टिगत आवश्यकता है कि नीतिगत स्तर पर मानक तय हों एवं दान हेतु भी सख्त नियम-कायदे बनें। सर्वप्रथम बर्बादी से बचाव हेतु दंडात्मक व्यवस्था की भी आवश्यकता है, ताकि जूठन छोड़ने का दुस्साहस भी नहीं हो। इसी तरह, खाद्य सामग्री निर्माता को भी निर्माण से विपणन, उपभोग और निस्तारण की संपूर्ण ट्रैकिंग व्यवस्था कायम करनी होगी। वर्तमान में किसी भी निर्माता द्वारा बहुमूल्य खाद्य सामग्री को जलाकर निस्तारण करने के आंकड़े जाहिर नहीं किए जाते। ट्रैकिंग के माध्यम से उसके उपयोग हेतु निर्धारित अवधि में ही विभिन्न माध्यमों से वितरण की व्यवस्था की जा सकती है।

इस बाबत सबसे पहले फ्रांस ने भोजन बर्बादी रोकने हेतु खुदरा एवं बड़े विक्रेताओं को बाध्य करने हेतु कानून लागू किया था, जिसका अनुसरण अनेक देशों ने किया है। शायद आम जन को यह जानकर दुखद आश्चर्य हो कि लगभग सभी विशिष्ट खाद्य निर्माता कंपनियां हर माह अपने डिपो से बड़ी मात्रा में खाद्य सामग्री सीमेंट प्लांट में जलाने हेतु भेजती हैं, जिसके लिए एक बड़ा वर्ग तरसता है। हमारी संस्कृति में अन्न को ही ब्रह्म माना जाता है, तो उसको जलाना या बर्बाद करना कितना न्यायोचित है, या यों कहें कि यह सीधा-सीधा पाप है। हाल ही में ग्लोबल फूड बैंकिंग नेटवर्क द्वारा जारी रिपोर्ट में अधिकाधिक फूडबैंक स्थापित करने की महत्ता के बाबत प्राकट्य तथ्यों में उल्लेख किया है कि एक फूडबैंक की स्थापना से लगभग एक हजार कारों के समकक्ष कार्बन उत्सर्जन को रोकने में मदद मिल सकती है और इसका लाभ दस वर्षों तक लगाए 63 हजार पौधों के समकक्ष होगा।

भोजन दान की हमारी संस्कृति को तकनीकी आधारित फूडबैंक से जोड़कर उचित व्यक्ति को पोषक भोजन पहुंचाने की आवश्यकता है। इस बाबत नीति निर्माण के माध्यम से स्वैच्छिक, सामाजिक संस्थाओं और दंड व्यवस्था को प्रोत्साहित करना समय की मांग है। सबको अपने मन में पुनः अन्न को भगवान रूप में स्थापित करना होगा, ताकि उसका निरादर न हो।