सभ्य समाजों में शिक्षा का महत्व सदा से रहा है। शिक्षित होकर जीने का सलीका आता है और मानवीय संवेदना का भाव विकसित होता है। पशुता से मुक्ति के लिए विद्या पाने की इच्छा की गई और कहा गया कि विद्याविहीन मनुष्य पशु होता है। विद्या के संस्कार न हों तो व्यक्ति के आचरण और व्यवहार में पशुता हावी होने लगती है। इसलिए कहा गया है कि अज्ञान दुखदायी होता है और अज्ञानी आदमी को जीवन में तमाम तरह के कष्टों का सामना करना पड़ता है। ज्ञान पृथ्वी पर सब चीजों से अधिक पवित्र है और उसे पाकर दुखों से छुटकारा मिलता है। उपनिषद कहते हैं ज्ञान से ही आदमी को मुक्ति मिलती है- ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः।

ज्ञान न केवल सही राह दिखाता है, बल्कि गलत राह पर जाने से बरजता भी है। ज्ञान से मिलने वाली उचित और अनुचित के विचार की शक्ति सही निर्णय लेने में सहायक होती है। ऐसे में यह स्वाभाविक है कि किसी सभ्यता की प्रगति उसकी ज्ञान की पूंजी (नॉलेज कैपिटल) से आंकी जाती है। ज्ञान, विद्या और शिक्षा को मानुष भाव की स्थापना, रक्षा और संवर्धन के लिए आवश्यक माना गया है।

शिक्षा की पुख्ता व्यवस्था के लिए उसका संस्थागत रूप बनाना अगला कदम था। वाचिक आदान-प्रदान के साथ पुस्तकें तैयार होनी शुरू हुईं, विद्यालय बने और विद्यालय जाना सभ्य जीवन का हिस्सा बन गया। यह बड़ा कारगर सिद्ध हुआ। शिक्षा की मुख्य धुरी के रूप में गुरु या अध्यापक की भूमिका निर्धारित की गई। गुरु को शिक्षा प्रक्रिया का केंद्रबिंदु बनाया गया, जो शिक्षा के उद्देश्य, उसकी विषय-वस्तु, उसके उपादान आदि को निर्धारित करता था।

भारत में प्राचीन गुरुकुलों और गुरुओं की लंबी श्रंखला रही है। राम के गुरु वशिष्ठ, कृष्ण के सांदीपनि, और पांडवों के गुरु द्रोणाचार्य प्रसिद्ध पौराणिक चरित्र हैं। देश निर्माण में चाणक्य जैसे गुरुओं की भूमिका का अत्यंत प्राचीन इतिहास है। भारत में गुरुओं की अटूट परंपरा में अगणित नाम हैं। ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों के कुछ प्रमुख नाम हैं- याज्ञवल्क्य, यास्क, कपिल, कणाद, व्यास, पाणिनि, उदयन, चरक, सुश्रुत, पतंजलि, शंकराचार्य, अभिनव गुप्त, नागार्जुन, वसुबंधु, भास्कराचार्य, आर्यभट्ट, हेमचंद्र आदि। इन्होंने ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में गुरु परंपरा की अमिट छाप छोड़ी, जो अनेकानेक ग्रंथों से भलीभांति प्रमाणित है। व्यक्ति की जगह परंपरा प्रमुख रही है।