राष्ट्रपति ने आम आदमी की पीड़ा को अभिव्यक्ति दी है। उनके इस भाषण को अजमेर के चर्चित छात्राओं के ब्लैकमेल कर रेप करने की घटना से जोड़ दें तो स्थिति उससे भी भयावह दिखती है, जिस ओर राष्ट्रपति जी का इशारा है। अजमेर में करीब 34 वर्ष पूर्व 100 से अधिक स्कूली छात्राओं से ब्लैकमेल कर दुष्कर्म किया जाता था। कहते हैं इसमें अजमेर शरीफ दरगाह कमेटी से जुड़े कई लोगों के नाम भी आए थे। इसलिए पुलिस ने पहले रुचि नहीं ली। आंदोलन के बाद केस दर्ज हुए। 32 वर्ष बाद, अभी एक माह पूर्व उसका फैसला वहां की अदालत ने सुनाया।
यह स्वाभाविक सवाल सबके मन में उठेगा कि 32 वर्षों तक आखिर कोर्ट क्या करता रहा? कोर्ट के फैसले को क्या न्याय कह सकते हैं? यह तो न्याय का उपहास है। उन पीड़ित बच्चियों का उपहास है। यह क्यों न माना जाए कि फैसला देने में विलंब करके प्रभावशाली दुष्कर्मियों को संरक्षण दिया गया? रेप समेत सभी केसों में यही स्थिति है। अदालतें सिर्फ तारीख पर तारीख देती हैं। उन्हें इसमें जरा भी लज्जा महसूस नहीं होती। मुख्य न्यायाधीश से लेकर निचली अदालतों के जज तक पेंडिंग केसों का रोना रोते रहते हैं। लेकिन सच तो यह है कि केसों के पेंडिंग होने के लिए जजों की कार्यप्रणाली ही जिम्मेदार है। मामूली केसों में भी लंबे लंबे डेट दिए जाते हैं। जानबूझ कर केसों को लटकाए रखा जाता है।
देश की विभिन्न अदालतों में अभी 5 करोड़ से अधिक मुकदमे पेंडिंग हैं। खेद के साथ कहना पड़ता है कि इसके लिए सिर्फ अदालतों में बैठे हाकिम जिम्मेदार हैं। रेप और हत्या जैसे गंभीर अपराधों पर भी अदालतें गंभीर नहीं होती। यही वजह है कि अजमेर रेप कांड में 32 साल बाद सजा सुनाई गई। चर्चित निर्भया केस में अपराधी को 12 वर्ष बाद फांसी दी जा सकी।
देश में रेप की बढ़ती घटनाओं के पीछे देरी से सजा मिलना भी एक बड़ी वजह है। दुष्कर्मी जानता है कि वह मुकदमे को जितने साल चाहे लंबा खींच सकता है। इस बीच पीड़ित को डरा धमकाकर केस को कमजोर कर दिया जाता है और अंततः दुष्कर्मी बरी हो जाता है। कोर्ट की सुस्ती से अपराधियों का हौसला बढ़ता है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। साथ ही कानून का डर भी खत्म हो जाता है।
छब्त्ठ के मुताबिक देश में प्रति 16 मिनट पर एक रेप और हर घंटे महिलाओं के विरुद्ध 50 आपराधिक घटनाएं हो रही हैं। हर दिन देश में 86 रेप रिपोर्ट होते हैं। 63 प्रतिशत रेप दर्ज नहीं होते। 10 फीसदी रेप अवयस्क से होते हैं। 89 फीसदी मामलों में रेपिस्ट पहचान का होता है।
रेप केस में 2 माह के अंदर जांच पूरी कर लेनी है। लेकिन पुलिस ऐसा नहीं करती। निर्भया केस फास्ट ट्रैक कोर्ट में चला तब भी दोषियों को फांसी देने में 12 साल लगे। इस आलोक में यह क्यों न माना जाए कि आज अदालतें गुनहगारों के साथ खड़ी हैं, पीड़ितों के साथ नहीं? किसी भी सभ्य समाज के लिए यह शर्मनाक स्थिति है।
क्या राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की बातें न्यायाधीशों की अंतरात्मा को जगा पाएंगी? क्या यह उम्मीद की जाए कि अदालतों की तारीख पर तारीख वाली कार्यशैली में सुधार होगा? रेप और हत्या के मुकदमों में एक साल के अंदर फैसला आएगा? या फिर इस कान से सुना उस कान से निकल जाएगा? महामहिम राष्ट्रपति जी की तरह देश के लाखों पीड़ित-शोषित आपकी ओर बहुत उम्मीद से देख रहे हैं मीलॉर्ड, कुछ तो कीजिए! सिर्फ नया झंडा और नया प्रतीक चिन्ह धारण कर लेने से कुछ नहीं होगा जब तक कार्य प्रणाली नई नहीं होगी।