राहुल गांधी अपने शब्दों से लोगों का ध्यान खींचते हैं। वह जो कुछ भी बोलते हैं, वह खबर बन जाती है। आप पाएंगे कि कई राजनेता निजी तौर पर कभी-कभी यह स्वीकार करते हैं कि वह विवादों के कारण आगे बढ़े हैं, क्योंकि विवाद उन्हें खबरों में बनाए रखता है!
हाल ही में प्रयागराज में संविधान सम्मेलन में दिए गए राहुल के एक बयान पर विवाद छिड़ गया, जिसमें उन्होंने कहा कि उन्होंने मिस इंडिया की सूची खंगाली, ताकि पता चल सके कि उसमें दलित, आदिवासी या ओबीसी महिलाएं हैं या नहीं। उस सूची में एक भी नहीं थी। उनके बयान का यह मतलब निकाला गया कि वह मिस इंडिया के प्रतिभागियों में भी आरक्षण के पक्ष में थे। इस पर छिड़ी बहस में जब महिलाएं और राजनीतिक दल शामिल हुए, तो उनमें से कुछ ने मिस इंडिया प्रतियोगिता में आरक्षण को जरूरी बताया, तो कुछ ने इसका विरोध किया।
लेकिन इस बहस ने फिर से राहुल को दलित और ओबीसी राजनीति के केंद्र में ला दिया, जिसकी अब वह अगुआई करना चाहते हैं। बहुत कम लोग इस पर सवाल उठाएंगे कि सभी जातियों और समुदायों की महिलाओं को मिस इंडिया जैसी प्रतियोगिता में भाग लेने का अधिकार है, और यह भी कि इसमें सभी महिलाओं के लिए समान अवसर होना चाहिए। फिर यह सवाल उठता है कि समाज में आरक्षण का दायरा कितना है?
इस समय सरकारी नौकरियों एवं उच्च शिक्षा संस्थानों में एससी, एसटी और ओबीसी के लिए आरक्षण है और विधायिकाओं में एससी एवं एसटी के लिए आरक्षण है। समय-समय पर मांग उठती रहती है कि आरक्षण को निजी क्षेत्रों में भी लागू किया जाए। परोक्ष रूप से मिस इंडिया प्रतियोगिता में आरक्षण की वकालत करके राहुल यह संकेत भी दे रहे हैं कि इसे निजी क्षेत्र में लागू किया जाना चाहिए।
सरकार में महिलाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो सके। यह सब राजनेताओं के ही हाथ में है, जो उनके बारे में इतनी बातें कर रहे हैं। दूसरा, दलित, आदिवासी और ओबीसी महिलाएं पैसे और संपर्कों की कमी के कारण मिस इंडिया प्रतियोगिता में नहीं पहुंच पाई हैं। इसका जाति से ज्यादा वर्ग से संबंध है। भारत में आयोजित होने वाली सौंदर्य प्रतियोगिताओं की प्रवृत्ति जितना सौंदर्य के बारे में पश्चिमी विचारों को उजागर करने की है, उतना भारतीय विचारों की नहीं। हालांकि राहुल इस ओर ध्यान नहीं देते हैं, क्योंकि वह जीवन के हर क्षेत्र में एससी-एसटी-ओबीसी की मौजूदगी की कमी पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
राहुल गांधी ने – और यह भाजपा एवं अन्य पार्टियों के लिए भी सच है – सामाजिक रूप से दबे-कुचले लोगों को ऊपर उठाने के लिए आरक्षण की वकालत सही ढंग से की है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि ये पार्टियां एससी, एसटी के अधिक जरूरतमंद लोगों तक आरक्षण का लाभ पहुंचाने के लिए सुप्रीम कोर्ट द्वारा सुझाए गए उप-वर्गीकरण को स्वीकार करने में अनिच्छुक हैं। प्रमुख जातियां आरक्षण का लाभ अपने कम भाग्यशाली भाइयों से साझा नहीं करना चाहती हैं और राजनीतिक दल अनुसूचित जातियों के प्रमुख समूहों (जैसे जाटव) के वोट खोना नहीं चाहते हैं। साफ है कि राहुल गांधी ने मंडल-2 कार्ड खेलने का फैसला किया है, और जाति जनगणना की मांग उसी राजनीति का हिस्सा है। उन्हें उम्मीद है कि वह इन उभरते समूहों के बीच पनप रही आकांक्षा क्रांति के अगले चरण का लाभ उठाएंगे और उनकी आवाज बनेंगे।
1990 में विश्वनाथ प्रताप सिंह ने मंडल आयोग की रिपोर्ट को लागू करके भारतीय राजनीति को हमेशा के लिए बदल दिया। राजीव गांधी ने उस फैसले का विरोध किया था, क्योंकि उन्हें डर था कि इससे ‘जाति युद्ध’ छिड़ सकता है। लेकिन राहुल दूसरे रास्ते पर चल रहे हैं। हालिया लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का जाति कार्ड काम कर गया।
अंत में, पूर्व प्रधानमंत्री वाजपेयी ने घुटने नहीं टेके और उनके बाद मनमोहन सिंह ने भी 10 सालों तक इसके लिए कोई माहौल तैयार नहीं होने दिया। नरेंद्र मोदी भी 10 सालों तक आगे नहीं बढ़े, लेकिन 2024 के लोकसभा चुनाव के परिणाम ने पूरी स्थिति को ही बदल डाला।