लोकसभा में नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी ने बाकायदा ऐलान कर दिया कि हम जाति जनगणना करवा कर रहेंगे। यह बात कांग्रेस के घोषणापत्र में थी और राहुल गांधी ने अपने लगभग सभी चुनावी भाषणों में भी इस बात का जिक्र किया ही है। जब तक जातिवार गिनती की बात सड़कों पर हो रही थी, भाजपा को इससे डर नहीं लग रहा था क्योंकि उसे विश्वास था कि वह इस मुद्दे से भी जनता का ध्यान भटका ही लेगी। लेकिन जिस तरह संविधान के मसले पर भाजपा चुनावों में घिर गई और उसके अपने सर्वेक्षणों में यह बात सामने आई है कि विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के उठाए इस मुद्दे पर ठीक से बचाव नहीं किया गया, इसलिए भाजपा को नुकसान हुआ है, उसी तरह का नुकसान अब जातिगत जनगणना के मुद्दे पर भी होता हुआ नजर आ रहा है।

अनुराग ठाकुर का बयान और प्रधानमंत्री की प्रतिक्रिया

राहुल गांधी के ऐलान का जवाब देने की कोशिश में पहला सेल्फ गोल भाजपा सांसद अनुराग ठाकुर ने दागा। उन्होंने सदन के भीतर कहा कि “जिनकी अपनी जाति का पता नहीं, वे जाति जनगणना की बात कर रहे हैं।” इस बयान पर मंगलवार से लेकर बुधवार तक विपक्ष ने संसद में खूब विरोध किया। अखिलेश यादव ने बाकायदा सवाल उठाया कि आप सदन के भीतर जाति कैसे पूछ सकते हैं। लेकिन अखिलेश यादव शायद भूल गए कि जो पार्टी सदन के भीतर धर्म के आधार पर साथी सांसद को अपशब्द सुना सकती है, वह जाति भी पूछ सकती है। बहरहाल, अनुराग ठाकुर के बयान के कुछ हिस्से को संसदीय कार्रवाई से हटा दिया गया, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने इस पूरे बयान को अपने एक्स प्लेटफार्म पर शेयर करके, इसकी तारीफ करके दूसरा सेल्फ गोल कर दिया।

भाजपा का सामाजिक विभाजन का चेहरा

जनता के सामने भाजपा के संविधान विरोधी चेहरे से पर्दा हट चुका है, अब देश की 80 प्रतिशत जनता यह भी देख रही है कि भाजपा किस तरह जातिगत सामाजिक व्यवस्था के दुष्चक्र का शिकार लोगों की पीड़ा को दूर नहीं करना चाहती है। राहुल गांधी से अनुराग ठाकुर ने उनका नाम लिए बिना जाति पूछी है और अब वे अपने बचाव में यही कह रहे हैं कि मैंने किसी का नाम नहीं लिया। दरअसल, अनुराग ठाकुर उच्च जातियों द्वारा अक्सर किए जाने वाले व्यवहार का ही प्रदर्शन कर रहे थे, जिसमें किसी को काम पर रखने से पहले या किसी के साथ सार्वजनिक यातायात में सीट या भोजन बांटने से पहले बड़ी चतुराई से नाम के साथ उपनाम पूछ लिया जाता है।

जातिगत भेदभाव और सामाजिक व्यवस्था

क्योंकि कई बार आर्थिक हैसियत से जाति का पता नहीं चलता। और जो लोग कमजोर आर्थिक हैसियत के होते हैं, उनसे तो बड़ी निर्लज्जता से ‘कौन जात हो’ का सवाल पूछा जाता है। इस सवाल के पीछे छिपी क्षुद्र मानसिकता का वीभत्स रूप मध्यप्रदेश में देखा गया जब भाजपा नेता ने आदिवासी युवक के सिर पर पेशाब कर दी। ऑनलाइन भोजन मंगवाने की सेवा में भी जाति का यह सवाल कई बार क्रूर तरीके से सामने आया है। कांवड़ यात्रा के दौरान जब मुस्लिम लोगों की पहचान के लिए दुकानों, होटलों और ठेलों पर नाम लिखने कहा गया, तब बहुत से लोगों ने चिंता जाहिर की थी कि नाम और पहचान का यह सवाल आगे जाति तक भी जा सकता है।

जातिगत जनगणना की मांग

राहुल गांधी जातिगत जनगणना की बात कर रहे हैं ताकि जातिगत उत्पीड़न और भेदभाव को दूर करने की शुरुआत हो सके। संसद में संविधान की प्रति को माथे से लगाना फोटो स्टंट हो सकता है, लेकिन दिल में मनुस्मृति बसी हो, तो फिर राहुल गांधी के जाति जनगणना कराने के संकल्प पर विचार करना और जरूरी हो जाता है। दरअसल, ‘कौन जात हो’, यह सवाल समाज में जाति के विभेद को बनाए रखते हुए, निचली जातियों पर सवर्णों के दबदबे को कायम रखना चाहता है। संघ की भाषा में इसे सामाजिक समरसता कहते हैं, जहां केवट को श्री राम का गले लगाना सामाजिक समरसता का श्रेष्ठतम उदाहरण बताया जाता है।

मोदी की सामाजिक समरसता

नरेन्द्र मोदी ने तो सामाजिक समरसता नाम से किताब भी लिखी है। वे खुद को जरूरत पड़ने पर ओबीसी भी बता देते हैं, और चुनावों के दौरान उन्होंने अमीरी और गरीबी केवल इन दो वर्गों को जाति माना था, बाकी सबको नकार दिया था। लेकिन इसी मोदी उपनाम पर बयान देने के कारण राहुल गांधी को न केवल मानहानि के मुकदमे का सामना करना पड़ा, बल्कि उन्हें ओबीसी विरोधी भी साबित करने की कोशिशें हुईं। अर्थात श्री मोदी खुद तय नहीं कर पा रहे हैं कि आखिर हिंदुस्तान में जातिगत सामाजिक व्यवस्था और इसके कारण एक बड़े तबके की वंचना पर उनके विचार क्या हैं। और राहुल गांधी जब इसका समाधान दे रहे हैं तो वे उन्हें अपमानित करने वालों की पीठ ठोंक रहे हैं।