डॉ. दीपक पाचपोर
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का नेतृत्व कई विरोधाभासों और विसंगतियों से भरा हुआ है। वे खुद को गरीब और ओबीसी वर्ग से बताते हैं, लेकिन उनकी जीवनशैली आम रईसों के ठाठ-बाट को भी मात देती है। संविधान की रक्षा की बात करते हुए वे राजतंत्र के प्रतीक सेंगोल को सीने से लगाए रखते हैं।
मोदी सरकार के कार्यकाल में लोकतंत्र के सिद्धांतों का हनन हुआ है। एक ओर वे भारत को दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक बताते हैं, वहीं दूसरी ओर 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देने की योजना चलाते हैं। उनके भाषणों में अक्सर बीते समय की नकारात्मक बातें और कुछ व्यक्तियों या संगठनों के प्रति घृणा देखने को मिलती है।
जब संसद का बजट सत्र प्रारंभ हुआ, तो प्रधानमंत्री ने विपक्ष द्वारा उनके गले को घोंटे जाने की बात कही। यह बात उनके लिए चिंता का विषय होनी चाहिए कि देश का नेतृत्व करते हुए उन्हें इस प्रकार की स्थिति का सामना करना पड़ रहा है।
आलोचना की अहमियत
लोकतंत्र में आलोचना का विशेष महत्व है। सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायाधीश ने कहा था कि “आलोचना प्रेशर कुकर की सीटी की तरह है। वह अगर न बजती रहे तो कुकर का फटना तय है।” मोदीजी ने आलोचना के सभी रास्ते बंद कर दिए हैं। वे विपक्ष का जवाब नहीं देते और खुली प्रेस वार्ता भी नहीं करते।
प्रधानमंत्री को यह समझना होगा कि आलोचना और उसके तर्कसंगत जवाब से लोकतंत्र सुरक्षित रहता है। लेकिन उन्होंने हमेशा सत्ता में रहकर आलोचना से बचने की कोशिश की है।
निष्कर्ष
प्रधानमंत्री मोदी को यदि वास्तव में लगता है कि उनका गला घोंटा गया है, तो उन्हें यह समझना चाहिए कि उन्होंने खुद भी विपक्ष और आम जनता के गले को घोंटने में कमी नहीं की है। कांग्रेस मुक्त भारत के नारे से लेकर विपक्ष मुक्त भारत की दिशा में किए गए उनके प्रयासों ने लोकतंत्र को कमजोर किया है।
विपक्षी दलों के नेताओं की गिरफ्तारियां, पत्रकारों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को जेल में डालना, बिना चर्चा के विवादास्पद कानून बनाना और किसानों के साथ किया गया बर्ताव—ये सभी घटनाएं दर्शाती हैं कि मोदी सरकार ने लोकतंत्र के मूल सिद्धांतों का पालन नहीं किया है। प्रधानमंत्री को यह सोचने की आवश्यकता है कि उन्होंने अपने कार्यकाल में किस प्रकार लोकतंत्र को कमजोर किया और जनता की आवाज को दबाया।