केंद्र की राजग सरकार ने एक आदेश जारी कर सरकारी कर्मचारियों के राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) की गतिविधियों में शामिल होने पर लगी रोक को हटा लिया है। इस निर्णय पर विपक्षी राजनीतिक दलों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है, जबकि संघ ने इस फैसले का स्वागत करते हुए इसे लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करने वाला कदम बताया है।
संघ और सरकार के बीच के संबंध
राजनीतिक पंडितों का मानना है कि लोकसभा चुनाव परिणामों के बाद संघ और सरकार के बीच उत्पन्न मनमुटाव को दूर करने के प्रयास के रूप में इस फैसले को देखा जा सकता है। संघ के वरिष्ठ नेताओं द्वारा दिए गए बयानों से यह प्रतीत होता था कि भाजपा और संघ के बीच के संबंध खराब हो रहे थे। संघ प्रमुख और अन्य वरिष्ठ नेताओं ने भाजपा नेतृत्व के प्रति आलोचनात्मक बयान दिए थे, जिससे यह कयास लगाए जा रहे थे कि संघ का भाजपा के शीर्ष नेतृत्व से मोहभंग हो गया है।
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य
1966 में संसद के सामने गोहत्या के खिलाफ बड़े प्रदर्शन के बाद, इंदिरा गांधी सरकार ने सरकारी कर्मचारियों के संघ में शामिल होने पर प्रतिबंध लगा दिया था। इस प्रदर्शन में आरएसएस और जनसंघ के प्रयासों से लाखों लोग जुटे थे और पुलिस के साथ टकराव में कई लोगों की जान गई थी। इसके बाद, सरकार ने यह प्रतिबंध लगाया था।
संघ की प्रतिक्रिया
संघ ने इस फैसले का स्वागत करते हुए कहा कि तत्कालीन सरकार ने निराधार ही शासकीय कर्मचारियों के संघ की गतिविधियों में भाग लेने पर रोक लगाई थी। संघ का दावा है कि यह कदम देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूत करेगा।
विपक्ष की प्रतिक्रिया
कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने इस फैसले पर कड़ा विरोध जताया है। कांग्रेस ने सवाल उठाया है कि पिछले 58 वर्षों से लागू इस प्रतिबंध को हटाने का औचित्य क्या है। पार्टी ने सरकार पर आरोप लगाया कि यह फैसला राष्ट्रहित से परे, राजनीति से प्रेरित और संघ के तुष्टीकरण के लिए लिया गया है। बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी इस फैसले की आलोचना की है और इसे संघ के तुष्टीकरण का कदम बताया है।
निष्कर्ष
केंद्र सरकार का यह फैसला संघ और भाजपा के बीच संबंधों को सामान्य करने की दिशा में उठाया गया कदम प्रतीत होता है। हालांकि, विपक्षी दलों ने इस पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है और इसे राजनीति से प्रेरित कदम बताया है। इस फैसले के दूरगामी प्रभावों को लेकर राजनीतिक और सामाजिक हलकों में बहस जारी है।