शकील अख्तर

चुनी हुई सरकार! जम्मू-कश्मीर की जनता द्वारा चुनी हुई सरकार! इस वाक्य का प्रयोग केंद्र सरकार, राज्य सरकार, संयुक्त राष्ट्र में जाने वाले भारत के प्रतिनिधि और हम पत्रकार लोग सब कश्मीर पर बात करने, लिखने में सबसे ज्यादा करते रहे हैं। पाकिस्तान, चीन, अमेरिका, यूरोप सब इस चुनी हुई सरकार से डरते थे। चुनी हुई सरकार मतलब जीवित लोकतंत्र। जम्मू-कश्मीर की जनता की इच्छा का प्रतीक। यह चुनी हुई सरकार की शक्ति ही थी कि 75 साल से पाकिस्तान के सीधे हस्तक्षेप और चीन, अमेरिका, यूरोप के कई देशों की नजर के बाद भी कश्मीर हमारा उतना ही अविभाज्य अंग रहा जैसे देश के दूसरे हिस्से।

मगर अब पिछले 6 साल से वहां चुनी हुई सरकार नहीं है। पहले की तरह राज्य भी नहीं है। केंद्र शासित प्रदेश है और अब वहां उपराज्यपाल को और अधिक शक्तियां देकर चुनी हुई सरकार, जो जाने कब होगी, को और ज्यादा कमजोर कर दिया गया है। इसका असर अंतरराष्ट्रीय पर पड़ता है। भारत का कश्मीर पर हमेशा एक मजबूत स्टैंड रहा है। जब भी पाकिस्तान संयुक्त राष्ट्र में जनमत संग्रह की बात करता है, हम कहते हैं यह विधानसभा चुनाव जनता की इच्छा का प्रतिनिधित्व ही करते हैं। और इन विधानसभा चुनावों ने जम्मू-कश्मीर में हर दल को सरकार में रखा है। आखिरी बार दस साल पहले 2014 में जो विधानसभा चुनाव हुए थे, उसमें बीजेपी ने पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाई थी।

आज बीजेपी चुनी हुई सरकार की शक्तियां कम करने का बचाव यह कहकर कर रही है कि वहां चुनी हुई सरकारें दो ही परिवारों की थीं। मगर यह बताना भूल गई कि उन दोनों परिवारों के साथ वह मिलजुली सरकार चला चुकी है। गठबंधन कर चुकी है। फारुक अब्दुल्ला की एनसी के साथ वाजपेयी ने केंद्र में सरकार चलाई थी। उमर अब्दुल्ला वाजपेयी सरकार में विदेश राज्य मंत्री थे। और फिर जम्मू-कश्मीर में प्रधानमंत्री मोदी ने मुफ्ती मोहम्मद सईद और महबूबा मुफ्ती की पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बनाई।

जम्मू-कश्मीर राजनीति की जगह नहीं है। भाजपा जब विपक्ष में थी तो कश्मीर पर खूब राजनीति करती थी। मगर 1999 में केंद्र में सरकार बनाने के बाद उसकी समझ में आ गया कि कश्मीर राजनीति का विषय नहीं है। अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद कहा कि कश्मीर में जो नार्मलसी (सामान्य स्थिति) लौटी है वह वहां की अवाम की वजह से है। उसने आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई जीती है। और यह सच भी है कोई सेना, सुरक्षा बल बिना जनता के सहयोग के आतंकवाद पर काबू नहीं पा सकती।

सेना ने वहां स्थानीय जनता के साथ मिलकर कई सफल आतंकवादी विरोधी अभियान चलाए। प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के समय समर्पित आतंकवादी कूका परे के साथ सेना ने उत्तरी कश्मीर में कई सफल आपरेशन किए। पाकिस्तान उत्तरी सीमा कूपवाड़ा से ही आतंकवादियों की घुसपैठ करवाता था। वहां के स्थानीय लोगों ने गुजर बकरवाल के साथ मिलकर सेना ने घुसपैठ पर नियंत्रण किया। उस समय के आंतरिक सुरक्षा राज्य मंत्री राजेश पायलट पहले नेता थे जो उस दुर्गम उत्तरी सीमा के दौरे पर गए थे।

बारह महीने बर्फ से ढंकी पहाड़ियों पर चापर (हेलिकॉप्टर) का लैंड होना भी बहुत मुश्किल होता था। वहीं से बर्फ कम होने गर्मियों में पाकिस्तान आतंकवादी भेजता था। उनके आने के दर्रे रास्ते पूर्व आतंकवादियों को और वहां के स्थानीय निवासी गुजर बकरवाल को मालूम होते थे। वे सेना की मदद करते थे। वे बहादुर लोग सिर्फ खबर ही नहीं देते थे, सेना के साथ रास्ता बताते हुए भी चलते थे।

इसलिए 1996 में नरसिन्हा राव सरकार वहां 9 साल बाद विधानसभा चुनाव करवा पाई। आतंकवाद का वह पीक समय था। सबसे मुश्किल दौर। इन पंक्तियों का लेखक इस पूरे दौर में वहीं रहा। श्रीनगर सहित पूरे कश्मीर में चौबीस घंटे का कर्फ्यू लगता था। चुनाव करवाना बड़ी चुनौती थी। पाकिस्तान का प्रचार था कि लोग चुनाव नहीं चाहते। मगर कांग्रेस की केंद्र सरकार ने हिम्मत दिखाई। और 1996 में विधानसभा चुनाव करवाकर वहां चुनी हुई सरकार बनवा दी। यह पाकिस्तान को कड़ा जवाब था।

भाजपा कहती है वहां लोकतंत्र नहीं था! आतंकवाद के दौर में दूसरा विधानसभा चुनाव 2002 में वाजपेयी ने करवाया। और अगर लोकतंत्र न होता तो वहां सरकार बदलती नहीं। फारुक अब्दुल्ला की सरकार हार गई और मुफ्ती मोहम्मद सईद मुख्यमंत्री बने। भारतीय लोकतंत्र की विविधता और परिपक्वता का इससे बड़ा उदाहरण क्या होगा कि राज्य में मुफ्ती और कांग्रेस की मिलजुली सरकार और केंद्र में भाजपा और एनसी की मिलीजुली सरकार। और दोनों सरकारों केंद्र और राज्य ने इतना शानदार मिलजुल कर काम किया कि जम्मू-कश्मीर में वाजपेयी और मुफ्ती का वह तालमेल हमेशा याद किया जाता है। आतंकवाद को खत्म करने और जनता में विश्वास जगाने का सर्वोत्तम समय।

अब जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद फिर नियंत्रण के बाहर हो रहा है। दरअसल आंतरिक सुरक्षा, आतंकवाद, हिंसा ऐसी चीजें हैं जो बातों से खत्म नहीं होतीं। काम करना पड़ता है। बाकी देश में तो यह कह देते हैं कि इतने करोड़ रोजगार सृजित हुए हैं, महंगाई कहां है? अंबानी की शादी देखो! कहीं लगता है कि महंगाई है? यहां तो कुछ भी कह दो। मणिपुर में बता दो कि स्थिति सुधर रही है। यह सुनकर विपक्ष के नेता राहुल गांधी तीसरी बार वहां गए। और वहां पत्रकारों से दुख के साथ बोले कि मैं समझ रहा था कि हालत वाकई सुधर गए होंगे। मगर हालत और ज्यादा खराब हो गई है। तो बातों से न मणिपुर की स्थिति सुधर सकती है और न जम्मू-कश्मीर की।

जम्मू-कश्मीर में चुनाव करवाने की जरूरत थी। दस साल हो गए विधानसभा चुनाव हुए। रिकॉर्ड बन गया। इससे पहले जब वाकई हालत बहुत खराब थे तब 9 साल चुनाव नहीं हुए थे। 1987 से 1996 तक। मगर अब तो मोदी सरकार रोज वहां स्थिति सुधारने का दावा कर रही है। लेकिन चुनाव की अभी भी उम्मीद नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल सितंबर तक चुनाव करवाने को कहा था। परिसीमन हो चुका है। भाजपा के अनुकूल जम्मू में सीटें बढ़ चुकी हैं। पहले जम्मू में 37 विधानसभा सीटें थीं, जो अब बढ़ाकर 43 कर दी गई हैं। 90 सदस्यीय विधानसभा में बिल्कुल बहुमत के पास।

कश्मीर में गुलाम नबी आजाद और दूसरे कुछ और नेताओं की पार्टियां खड़ी कर ली गई हैं, जिनसे कुछ सीटें मिल सकें। मगर हालत जम्मू में ही खराब हो गई। यहां से हमेशा भाजपा के समर्थन मिलता था मगर राष्ट्रपति शासन के दौरान 6 साल जम्मू को कुछ नहीं दिया गया। केवल बातें। नतीजा इस बार जम्मू की दोनों लोकसभा सीटों पर कांग्रेस अच्छा लड़ गई। जम्मू में साढ़े पांच लाख से ज्यादा वोट मिले। और दूसरी सीट उधमपुर में करीब साढ़े चार लाख। हार केवल एक लाख 24 हजार वोटों से हुई। जम्मू में एक लाख 35 हजार करीब वोट से। दस दस लाख से ज्यादा के लोकसभा क्षेत्र में बीजेपी की जीत का यह मार्जिन ज्यादा नहीं है।

इसलिए बीजेपी इस बार जम्मू में सशंकित है। उपराज्यपाल को अधिक पावर देना, प्रधानमंत्री का कश्मीर जाकर योग करना जैसे उपाय अपना कर वह लोगों का ध्यान राज्य की बिगड़ती व्यवस्था से हटाना चाहती है। मगर यह टोटके समस्याग्रस्त राज्यों में काम नहीं करते। वहां तो स्थिति में सुधार दिखना चाहिए। जम्मू-कश्मीर में चुनी हुई सरकार भंग करने के बाद से वहां स्थिति बिगड़ती जा रही है।