दुनिया को वापस पीछे नहीं खींचा जा सकता। सभी देश यह मान रहे हैं और पीछे खींचने वाली ताकतों को पीछे कर रहे हैं। इंग्लैंड में 14 साल बाद कंजर्वेटिव पार्टी हारी। 14 साल बहुत होते हैं, मगर यह बताते हैं कि प्रगतिशील ताकतों को हमेशा के लिए खत्म नहीं किया जा सकता। जनता का मूल स्वभाव हमेशा और हर जगह आगे बढ़ने और बढ़ाने वाली ताकतों के साथ होता है। खुद उसके मन में कम या बदलाव का अंश न भी हो तो भी वह देश को रुका हुआ, पीछे जाता हुआ नहीं, आगे बढ़ता हुआ देखना चाहती है।

इंग्लैंड में कंजर्वेटिव का मतलब वही है जो हमारे यहां दक्षिणपंथियों का है। पहले हिंदू महासभा इन ताकतों का प्रतिनिधित्व करती थी, अब भाजपा कर रही है। दस साल बाद वह भी कमजोर हुई है और 303 से 240 पर आ गई है। साधारण बहुमत भी नहीं है उसके पास। अवसरवादी ताकतों के भरोसे सरकार बनाई है। नायडू और नीतीश को कब दूसरे पाले में ज्यादा संभावनाएं दिखने लगें, किसी को नहीं मालूम। उनके लिए अपना अस्तित्व बचाए रखना पहली प्राथमिकता है। दोनों की आखिरी पारी है। नायडू 74 साल के हैं और नीतीश 73 के। ऐसे में उनका सारा संघर्ष अब खुद को बनाए रखना है। और अगर कोई एक मौका मिल जाए, चाहे कुछ ही समय के लिए चरणसिंह, देवेगौड़ा जैसे तो वे उसे पकड़ने में चूकेंगे नहीं।

मोदीजी का तीसरा कार्यकाल पूरी तरह इन दोनों की बैसाखियों पर ही टिका है। और बदलती दुनिया की खबर इन्हें भी है। परिवर्तन केवल इंग्लैंड में ही नहीं हुआ है, ईरान में भी हुआ है। वहां भी अपेक्षाकृत सुधारवादी जीते हैं। पीछे ले जाने वाली ताकतें हारी हैं। वहां राष्ट्रपति इब्राहिम रईसी की पिछले दिनों हेलिकॉप्टर हादसे में हुई मृत्यु के बाद नए राष्ट्रपति के चुनाव हुए थे। जीतने वाले मसूद पजेश्कियान प्रोफेशन से डॉक्टर हैं, हार्ट सर्जन। सुधारवादी माने जाते हैं और मोरल पुलिसिंग के कड़े विरोधी हैं। वे अंतरराष्ट्रीय जगत में ईरान के अलग-थलग पड़ने का सवाल हमेशा उठाते रहे हैं और मिलजुल कर रहने के हिमायती हैं। दूसरी तरफ हारने वाले सईद जलीली यथास्थितिवादी हैं।

ईरान के चुनाव एक बड़ा बदलाव दिखाते हैं। दुनिया और खास तौर से इस्लामिक मुल्कों के लिए कि उदारवादी ताकतों को हमेशा के लिए नहीं दबाया जा सकता। हालांकि ईरान की शासन व्यवस्था बहुत जटिल है। धार्मिक और लोकतांत्रिक दोनों पावर में होते हैं। वहां सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खमेनेई हैं और वे धार्मिक शख्सियत हैं। खमेनेई दूसरे सर्वोच्च शासक हैं। पहले इस्लामिक क्रांति करने वाले खमेनी थे, जो 1971 से अपनी मृत्यु 1989 तक इस पद पर रहे। और तब से खमेनेई हैं। वे अभी 85 साल के हैं। उनके उत्तराधिकारी का भी नाम घोषित होने वाला है। इसके लिए एक बड़ी समिति होती है, विशेषज्ञ सभा जो नाम तय करती है। तो इन जटिल और धार्मिक लोकतांत्रिक मिलीजुली व्यवस्था में उदारवाद का जीतना एक बड़ी घटना है, जो यह बताती है कि किसी भी देश में सुधारों को रोकना और उदारवाद को नहीं आने देना संभव नहीं है।

इंग्लैंड में जिस बड़ी ताकत के तौर पर चार सौ पार लेबर पार्टी आई है, वह बताती है कि जैसे ईरान में धार्मिक ताकतों के खिलाफ मसूद की जीत हुई, वैसे ही अभी भी दुनिया के सबसे परंपरावादी देश इंग्लैंड में आधुनिक विचार वालों की। यहां एक रोचक तथ्य है कि भारत के लिए आजादी की घोषणा लेबर पार्टी के शासनकाल में ही हुई थी। जबकि कंजर्वेटिव, जिनकी अभी 14 साल बाद हार हुई, वे भारत की आजादी के घोर विरोधी थे। उनके नेता चर्चिल तो कहते थे कि भारतीय इस योग्य ही नहीं हैं कि उन्हें खुद अपनी सरकार चलाने के लिए सौंपी जाए।

इसलिए हमारे यहां मिथ्या धारणाओं के कारण लोग चाहे कंजर्वेटिव पार्टी के नेताओं का समर्थन करने लगें, मगर सच्चाई यह है कि भारत के सच्चे दोस्त हमेशा लेबर पार्टी वाले ही रहे। इसी तरह रूस रहा। अमेरिका नहीं। मगर हमारे हुक्मरानों को अमेरिका इतना प्रिय है कि वहां उनके चुनाव में प्रचार कर आते हैं। हार गए थे ट्रंप। फिर लड़ रहे हैं। मगर इस बार शायद वह अपने स्टार प्रचारक मोदीजी को नहीं बुलाएं।

दुनिया भर में ट्रेंड बदल रहा है। ब्राजील में दक्षिणपंथी हारे। वहां लूला दा सिल्वा ने वापसी की। मेक्सिको में दक्षिणपंथी हारे। पिछले कई सालों से केवल भाषण देने वाले और जनता में मिथ्या धारणाएं पैदा करके मूल समस्याओं से उनका ध्यान हटाने वाले जीत रहे थे। मगर अमेरिका में ट्रंप की हार, फिर दूसरे बड़े देश इंग्लैंड में कंजर्वेटिव और ईरान में बड़बोलों की हार और भारत में उनका कमजोर होना वापस जनता की राजनीति का मजबूत होना माना जा रहा है।

दरअसल जनता प्रगति, मेल-मिलाप और भाईचारा चाहती तो है। मगर उसके लंबे रास्ते के मुकाबले कई बार उसे भाषणों के जरिए रातों-रात जग बदल देने के दावे करने वाले लुभा जाते हैं। दस साल में हमारे यहां क्या हुआ, यह खुद मोदीजी नहीं बता पाए। पूरे चुनाव में केवल मुसलमान और कांग्रेस ने यह नहीं किया, वह नहीं किया ही कहते रहे। उन्हें जिताया मीडिया ने। गोदी मीडिया इसीलिए कहा जाता है उसने चार सौ पार की हवा बना दी। पूरे चुनाव के दौरान और फिर एक्जिट पोल में वह चार सौ पार दिखाता रहा। अगर एक बार भी वह कह देता जो हकीकत थी कि मुकाबला कांटे का है तो मोदीजी को 240 सीटें 140 पर रह जातीं।

जनता हवा के प्रभाव में आ जाती है। इसलिए मीडिया कितना बड़ा अपराधी है यह कांग्रेस नहीं समझती। वह अभी भी उसके आसपास घूमती रहती है। मीडिया कांग्रेस को सिर्फ टुकड़ा डालती है। अपनी पसंद के नेताओं के इंटरव्यू, बाइट चेहरे दिखाती है। उसके बदले में राहुल गांधी को ब्लैक आउट करती है। राहुल के खिलाफ निंदा अभियान चलाती है। राहुल के प्रभाव को कम करने में लगी रहती है। मोदीजी जो कांग्रेस मुक्त भारत कहते हैं, उसे मीडिया अच्छी तरह समझती है। कांग्रेस के नेता नहीं समझते। उसका मतलब है राहुल मुक्त कांग्रेस। मीडिया उसी प्रयास में लगी रहती है और कांग्रेस के नेता इसमें सहयोग करते हैं।

आखिर लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बोलते हुए राहुल के मुंह से जी-23 निकल ही गया। जी-23 मतलब राहुल को कांग्रेस से निकालने में लगे कांग्रेसियों का ग्रुप। राहुल हिम्मत तो बहुत करते हैं। मोदीजी के खिलाफ हमेशा सीना तान कर खड़े रहते हैं।